हामिद

 

हामिद 

फ़िल्म के एक दृश्य में कश्ती बनाने वाले रसूल चाचा, बशीर मियां से कहते हैं, “बच्चों के उसूलों पर अगर दुनिया चल पाती, तो सचमुच में जन्नत हो गई होती”।  


किंचित यही पंक्ति शायद इस फ़िल्म की आत्मा बयां करती है। पर्दानशीं पर हम आज बात कर रहे हैं 2018 में प्रदर्शित हुई फ़िल्म “हामिद” के विषय में।  


“हामिद” कश्मीर की पृष्ठभूमि में एक सात साल के बच्चे  की अपने पिता को ढूँढने की कहानी है। जब आप कश्मीर पर बनी फ़िल्म की बात करते हैं तो सबसे पहले दिमाग में दो चीज़ें आती है।

एक ओर तो मन में घूमती है  कश्मीर घाटी की निराली छटा, वहाँ की प्राकृतिक सुंदरता। बर्फ़ से भरी  पहाड़ियाँ, और चिनारों और सनोबर के दरख्तों से भरी वादियाँ। 

वहीं दूसरी ओर, आँखों के सामने आते हैं वो दृश्य जो वहाँ पर व्याप्त राजनैतिक समस्याओं और अस्थिरता की कहानी कहते हैं। छावनी की तरह नज़र आने वाली सड़कें और मोहल्ले, सड़क पर बिखरे पत्थर, जगह जगह कभी कर्फ्यू का सन्नाटा तो कभी आज़ादी के नारों के बीच बेक़ाबू भीड़ का पथराव। जुम्मे की नमाज़ के रोज़ कश्मीर के मुस्लिम समाज का भीड़ में नमाज़ अदा करना और उनको घेर कर खड़ी हुई सेना के जवानों की टुकड़ी।  दु:ख की बात यह है कि पिछले 2-3 दशकों से दूसरा दृश्य ही ज़्यादा दिमागों में कौंधता रहा है और पहला दृश्य ओझल होता जा रहा है।  


कश्मीर के पेचीदा मुद्दे पर बुनी हुई कहानियों और फ़िल्मों में हम कई तरह के पक्ष अक्सर देखते हैं। मानवीयता से लबरेज़ और संतुलित फ़िल्में भी और समस्याओं की जड़ को दिखाने वाली, अलगाववादी ताकतों और सैन्य बल के टकराव और देशभक्ति में लिपटी फ़िल्में भी। 


“कश्मीर फ़ाइल्स” हो या “हैदर”, सभी को अपनी अपनी तरह से सफलता मिली है। लेकिन “हामिद” मेरे विचार से इन सबसे अलग, अलहदा तरह की कहानी है।  फ़िल्म का पसमंजर यूं तो कश्मीर है और वहाँ की राजनीतिक और मानवीय समस्याओं के इर्द-गिर्द घूमती है, लेकिन दर’असल ये एक बच्चे की ही कहानी है और बच्चे के दृष्टिकोण से ही इन बातों को छुआ गया है। जब आप किसी बच्चे के दृष्टिकोण से किसी पेचीदा मामले को देखते हैं, तो उसमें निहित मानवीयता और मासूमियत, जिसे नज़रंदाज़ करना बड़ा ही सरल होता है, पर ठहरने का अवसर मिलता है। और उस नज़रिये से भी समस्याओं को देख सकने की दृष्टि पैदा होती है।


 निर्देशक ऐजाज़ खान द्वारा बड़े ही भावनात्मक अंदाज से रविंदर रँधावा और सुमित सक्सेना की कहानी को फिल्माया गया है। ये कहानी मो. अमीन बट के एक नाटक पर आधारित है। 

कहानी में छोटे बच्चे हामिद का क़िरदार बाल कलाकार तल्हा अरशद रेशी ने निभाया है। उनके अलावा सबसे ज़रूरी क़िरदार में विकास कुमार, जिन्हे आप टेलिविज़न के प्रसिद्ध धारावाहिक सीआईडी के इंस्पेक्टर रजत के रूप में जानते ही होंगे,  ने CRPF(केन्द्रीय रिज़र्व पुलिस बल) के जवान अभय की शानदार  भूमिका निभाई है। दमदार अभिनय के साथ रसिका दुग्गल ने हामिद की माँ इशरत का क़िरदार बखूबी निभाया है। सुमित कौल ने हामिद के पिता का छोटा लेकिन प्रभावी अभिनय किया है। उन्होंने फ़िल्म में कश्मीर के प्रसिद्ध लोकगीत “हुकुस बुकउस” भी गाया है। 


फ़िल्म की कहानी कुछ यूं है कि एक बार हामिद के ज़िद करने के कारण रात में पिता उसके लिए कुछ लेने निकलते हैं, लेकिन कश्मीर में गायब हो रहे सैंकड़ों लोगों की तरह फिर वापस नहीं आ पाते। उसकी माँ अब पूरी तरह से अपने पति को ढूँढने के अलावा अपने जीवन की सारी बातें भूल जाती है, और अलग ही दुनिया में खोई रहती है। हामिद को एक दिन अल्लाह का नंबर 786 पता चलता है, और वो उनसे बात करने की गरज से , CRPF के जवान अभय से अल्लाह समझ कर बात करने लगता है।  फ़िल्म इन दोनों के फोन के संवादों के इर्द-गिर्द ही घूमती है, लेकिन इन्ही बातों से अपनी सारी बातें कह देती है। 


मार्मिकता और भावनात्मक चित्रण ही इस फ़िल्म की खूबी है, और मेरे विचार से इस तरह के मुद्दों के मानवीय कोण को समझना ही सबसे ज़्यादा ज़रूरी है। और इस कोण को समझने के लिए एक बच्चे के परिप्रेक्ष्य से अच्छा और क्या विकल्प हो सकता है! जहाँ एक ओर एक शख्स उसे जिहाद का रास्ता सिखाता है तो दूसरा शख्स उसे अपने पिता का काम सिखाने की बात कहता है। कैसे जीवन किसी भी मोड़ पर जा सकता है, ये बड़ी महीन और समझने वाली बात है। कश्मीर के बच्चे के हाथ में पत्थर भी आ सकता है या नाव बनाने वाले औजार भी। मार्गदर्शन और मनःस्थिति की बात है। 


फ़िल्म में कश्मीर में व्याप्त सारी बातें अलग अलग तरीके से दिखाई गई हैं, लेकिन किसी भी बात के सही या ग़लत पक्ष को दर्शाया नहीं गया है। ये फ़िल्म एक तरह से किसी भी बात का कोई समाधान देने की कोशिश नहीं करती है। जो शायद इसका उद्देश्य भी नहीं है। 


आप इसे उम्मीद की कहानी भी कह सकते हैं, और यथार्थ को स्वीकार करके आगे बढ़ने का संदेश भी इस कहानी से ले सकते हैं। मासूमियत और भोलापन जिस प्रकार से हामिद के संवादों में है और कैसे यही मासूमियत हमारी बनाई दुनिया के उसूलों पर कड़ा प्रहार करती है, वही सबसे दिलचस्प बात है और इस फ़िल्म की जान है।


बहुत बड़ी अतिशयोक्ति कहने जा रहा हूँ, लेकिन अगर आपको इस हामिद में प्रेमचंद की “ईदगाह” के हामिद की छवि नज़र आ जाए तो अचरज नहीं होगा।  फ़िल्म में अपनी कमियाँ भी हैं, जैसे फ़िल्म के अन्य छोटे छोटे क़िरदारों का प्रदर्शन मंजा हुआ नहीं है, और फ़िल्म की रफ़्तार धीमी है। लेकिन चूंकि फ़िल्म की आत्मा बच्चे के दृष्टिकोण से दुनिया को देखना है, ये सारी बातें खास मायने नहीं रखती हैं। 


फ़िल्म के शुरुआत में नाव बनाने वाले, हामिद के पिता रहमत कहते हैं "मैं इस कश्ती पर लाल रंग करूंगा जो जेहलम पर बहुत फबता है"। अंतिम दृश्य में जब वही कश्ती को पूरा करके, वही लाल रंग लगा कर हामिद अपनी माँ के साथ जब जेहलम पर निकलता है तो साथ ही दर्शकों को भी इस यात्रा का अंत और नयी यात्रा की शुरुआत दिख जाती है। 


कश्ती बनाने वाले रसूल चाचा ने एक दृश्य में कहा है “पानी पर रहने वालों को, मौजों से इनकार नहीं करना चाहिए”। हमें शायद यही सीख दे जाती है ‘हामिद’ की कहानी। 


"हामिद" नेटफलिक्स पर यहाँ उपलब्ध है - https://www.netflix.com/title/81123050


~ मनीष कुमार गुप्ता  


Comments

  1. बहुत ही उम्दा रिव्यू है. बधाई! आशा है ज्यादा से ज्यादा लोग इस प्रोपोगंडा से परे मानवीय संवेदनाओं को दर्शाती फिल्म को देखेंगे.👍

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    1. धन्यवाद मित्र! इस ब्लॉग का एक बड़ा उद्देश्य यही है कि लोग नज़रंदाज़ हो गई फ़िल्मों पर एक बार फिर ध्यान दें।

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