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Showing posts from November, 2022

थोड़ा सा रूमानी हो जाएँ

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थोड़ा सा रूमानी हो जाएँ अटल बिहारी वाजपेयी जी की पंक्तियाँ हैं - “भरी दुपहरी में अंधियारा सूरज परछाई से हारा अंतरतम का नेह निचोड़ें- बुझी हुई बाती सुलगाएँ। आओ फिर से दिया जलाएँ” गहरे अंधकार में, जब कहीं कोई राह न सूझे, रात गहराती जाए, सहर न आए।  जब निराशा के बादलों में आप पूरी तरह से ढके हों और उम्मीद की किरणें कहीं नज़र न आयें।  आशा का दामन थामना तभी सबसे ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है। “आशा” जीवित रहने की अवस्था में निहित सबसे आदिम और सबसे आवश्यक गुण है। जीवन नाम के इस सफ़र का ईंधन आशा ही है। बेहद सरल बात है, लेकिन कभी कभी बेहद कठिन भी। बस इसी सरल लेकिन ज़रूरी  भाव पर आधारित है अमोल पालेकर कृत - “थोड़ा सा रूमानी हो जाएँ”  वर्ष था 1990। एक तरफ़ राजकुमार संतोषी की “घायल” , लोगों को “ढाई किलो का हाथ” के जलवे दिखा रही थी , वहीं महेश भट्ट की “आशिक़ी” प्रेम गीतों के साथ सफलता के नए कीर्तिमान हासिल कर रही थी। इस बीच एनएफडीसी के छोटे से बजट और दूरदर्शन द्वारा प्रस्तुत, ये फ़िल्म लोगों की नज़रों से चूक जाए , इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं थी।  ये फ़िल्म 1954 में लिखे गए एन रिचर्ड नैश के नाटक “द रेनमकेर” का भा

रघु रोमियो

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  रघु रोमियो  रघु बारिश में भीगता हुआ अपने घर पहुँचता है और गीली शर्ट उतार देता है। उसकी माँ घर में जगह जगह टपकते पानी से सामान बचाने के लिए बर्तन रख रही है, और आते ही रघु पर बरस पड़ती है कि कबसे कह रही हूँ घर की छत ठीक करा दे। रघु सारी बातें नज़रंदाज़ करके पास रखे टीवी पर पानी टपकता हुआ देखकर बौखला जाता है और सीधा टीवी को बचाने कि जद्दोजहद में लग जाता है। बिना शर्ट के अपनी इकहरी काया से बक्से जैसा टीवी उठाए, रघु घर में टीवी को रखने की जगह खोज रहा है और माँ माथा पीटते हुए घर के बाकी सामान को बचाने में और सफ़ाई में लगी हुई है। ऊपर दिए गए दृश्य से ही आप अंदाज़ा लगा सकते हैं, इस फ़िल्म के नायक की पृष्ठभूमि का और उसके द्वन्द्व का। निर्देशक और लेखक रजत कपूर की “रघु रोमियो” अपने ही तरह की एक मज़ेदार कहानी है और साथ ही तीखा व्यंग्य अपने अंदर छुपाये हुए है।  शीर्ष भूमिका में विजय राज, और साथ ही मुख्य भूमिकाओं में सादिया सिद्दीक़ी, सौरभ शुक्ला, मारिया गोरेटी वारसी, और अन्य भूमिकाओं में सुरेखा सीकरी, वीरेंद्र सक्सेना, मनु ऋषि। इन बेहद अच्छे कलाकारों के द्वारा अभिनीत ये फ़िल्म एक “डार्क/ब्लैक कॉमेडी” शैल

अरविन्द देसाई की अजीब दास्तान

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“कमिंग ऑफ़ ऐज” , यानि कि नायक का अपने अंदर की दुविधाओं से बाहर आकर खुद को अपनी चुनौतियों के सामने खड़े करने का सफ़र। दुनियाभर में इस विषय पर तरह-तरह की फ़िल्में बनती रही हैं और बहुत सफल भी हुई हैं।  लेकिन सईद अख्तर मिर्ज़ा ने इस तरह की कहानियों का विपरीत पक्ष देखने की कोशिश की और एक “नेवर कमिंग ऑफ़ ऐज” मूवी बनाई - “ अरविन्द देसाई की अजीब दास्तान ”। सईद अख्तर मिर्ज़ा, को “ मोहन जोशी हाज़िर हो ” और “ नसीम ” के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है और उनकी अनेक फ़िल्मों को अक्सर सराहा गया है। “ अल्बर्ट पिन्टो को गुस्सा क्यूँ  आता है ” तो दोबारा इसी नाम से फिर से बन चुकी है। "अरविन्द देसाई..." मिर्ज़ा की पहली फीचर फ़िल्म है जो 1978 में प्रदर्शित हुई थी।  फ़िल्म में अरविन्द देसाई की भूमिका में हैं दिलीप धवन। कालांतर में दिलीप धवन ने दूरदर्शन के धारावाहिक “ नुक्कड़ ” में फिर से मिर्ज़ा के साथ काम किया था।  इसके अलावा मुख्य भूमिकाओं में - अंजली पैगनकर, श्रीराम लागू, ओम पुरी, रोहिणी हट्टनगड़ी हैं।  फ़िल्म का पहला दृश्य ही आपको बांध लेता है। फ़िल्म शुरू होती है, किसी मजदूरों की बस्ती में काम करते हुए मजदूरों

ईब आल्ले ऊ

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अरे!   ये क्या है “ईब आल्ले ऊ” ?  दर'असल ये हिन्दी फ़िल्म का नाम है जो 2019 में प्रदर्शित हुई थी। जितना अजीब ये नाम है उतनी ही कमाल की फ़िल्म भी है। यह नाम एक ध्वनि-अनुकरणीय यानि कि “अनॉमटोपिक”(onomatopoeic) नाम है। ये अजीबोग़रीब आवाज़ें निकाली जाती हैं लुटियंस दिल्ली के इलाके में बंदर भगाने वालों के द्वारा । और यही इस फ़िल्म की विषय-वस्तु है।  प्रतीक वत्स द्वारा निर्देशित पहली फीचर फ़िल्म जिसकी कहानी और पटकथा प्रतीक और शुभम ने लिखी है। एक साक्षात्कार के अनुसार, प्रतीक ने दिल्ली के किसी बंदर भगाने वाले की मौत की ख़बर अखबार में पढ़ी तब उन्हे इस विषय पर कहानी कहने और फ़िल्म बनाने का विचार सूझा था। मुख्य भूमिका में हैं शार्दूल भारद्वाज । उनके अलावा नूतन सिंह, शशि भूषण, महेंदर नाथ और नैना सरीन। आप सोच रहे होंगे कि इनमें से किसी का नाम कभी नहीं सुना। लेकिन शायद यही बात इस फ़िल्म को और भी बेहतरीन बनाती है। एक और विशेष बात यह है कि इस फ़िल्म में महेंदर का क़िरदार निभा रहे महेंदर नाथ खुद एक बंदर भगाने वाले का काम करते हैं।   मूलतः ये कहानी है एक गाँव से काम की तलाश में आए अंजनी के जीवन-संघर्ष

इस ब्लॉग का उद्देश्य

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भारत में लगभग 1800 फिल्में हर वर्ष बनती हैं, जिसमें से 500 से अधिक सिर्फ हिन्दी फिल्में। लेकिन अक्सर हर साल हम सिर्फ 20-30 से ज़्यादा फिल्में न देख पाते हैं और न उनके बारे में जान पाते हैं, क्यूंकी वो प्रचलित मीडिया का हिस्सा नहीं बन पाती। कभी इसलिए कि उनमें सुपर स्टार माने जाने वाले अभिनेता, दिग्दर्शक आदि नहीं हैं। या फिर उनके गाने मशहूर नहीं हुए। या फिर इसीलिए कि वे किसी विवाद का हिस्सा नहीं रहीं और इसीलिए व्यस्त दर्शकों की नज़र में आने से चूक गईं। ये कोशिश है ऐसी कुछ 'अच्छी' फ़िल्मों के ऊपर लोगों का ध्यान आकर्षित करने की। यहाँ पर यह बयान करना भी ज़रूरी है कि , ये फिल्में 'अच्छी' हैं ये इस लेख के लेखक की सोच है और आपका मत भिन्न हो सकता है और इसकी पूरी संभावना भी है। एक और बात बताना ज़रूरी है कि, इन लेखों में हो सकता है फ़िल्म की कहानी और घटनाओं का विवरण हो। यानि की ‘ स्पॉइलर्स ’ हो सकते हैं। इन उद्देश्यों के अलावा एक और उद्देश्य यह भी है कि उपरोक्त फ़िल्मों को न सिर्फ उनकी कहानी, अभिनय, निर्देशन की गुणवत्ता के आधार पर बात की जाए, बल्कि उस कहानी के परिप्रेक्ष्य में और भी