थोड़ा सा रूमानी हो जाएँ
थोड़ा सा रूमानी हो जाएँ अटल बिहारी वाजपेयी जी की पंक्तियाँ हैं - “भरी दुपहरी में अंधियारा सूरज परछाई से हारा अंतरतम का नेह निचोड़ें- बुझी हुई बाती सुलगाएँ। आओ फिर से दिया जलाएँ” गहरे अंधकार में, जब कहीं कोई राह न सूझे, रात गहराती जाए, सहर न आए। जब निराशा के बादलों में आप पूरी तरह से ढके हों और उम्मीद की किरणें कहीं नज़र न आयें। आशा का दामन थामना तभी सबसे ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है। “आशा” जीवित रहने की अवस्था में निहित सबसे आदिम और सबसे आवश्यक गुण है। जीवन नाम के इस सफ़र का ईंधन आशा ही है। बेहद सरल बात है, लेकिन कभी कभी बेहद कठिन भी। बस इसी सरल लेकिन ज़रूरी भाव पर आधारित है अमोल पालेकर कृत - “थोड़ा सा रूमानी हो जाएँ” वर्ष था 1990। एक तरफ़ राजकुमार संतोषी की “घायल” , लोगों को “ढाई किलो का हाथ” के जलवे दिखा रही थी , वहीं महेश भट्ट की “आशिक़ी” प्रेम गीतों के साथ सफलता के नए कीर्तिमान हासिल कर रही थी। इस बीच एनएफडीसी के छोटे से बजट और दूरदर्शन द्वारा प्रस्तुत, ये फ़िल्म लोगों की नज़रों से चूक जाए , इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। ये फ़िल्म 1954 में लिखे गए एन रिचर्ड नैश के नाटक “द रेनमकेर” का भा