गाँधी माय फ़ादर (Gandhi my father)



गाँधी माय फ़ादर (Gandhi my father)


गुलज़ार ने एक गीत में कहा है - 

 

“तुम्हें ये ज़िद थी कि हम बुलाते, हमें यह उम्मीद वो पुकारें।

है नाम होंठों पे अब भी लेकिन, आवाज़ में पड़ गई दरारें”


हम सब अपने जीवन में कभी न कभी ऐसी दुविधाओं से अक्सर जूझते हैं, जिसमें हमें चुनाव करना पड़ता है राह और हमसफ़र के बीच, सिद्धांत और साथी के बीच, अपने सत्य और अपनों के सत्य के बीच।  जब हम आप भी इस दुविधा से गुज़रते  हैं तो एक महात्मा के पदवी पाने वाले इंसान और उसके आसपास के लोग कैसे बच सकते हैं। क्या इन्ही दुविधाओं के जूझना, संघर्षों का सामना करना और बिखर जाने की स्तिथि तक वज्रपात सहते रहना, ही महात्मा होना है? पता नहीं।


आज परदानशीं ब्लॉग पर हम फ़िरोज़ अब्बास ख़ान कृत “Gandhi my father” पर बात कर रहे हैं। 

फ़िल्म 2007 में प्रदर्शित हुई थी और गांधीजी के सबसे बड़े  पुत्र हीरालाल गाँधी और स्वयं गांधीजी के संबंध और उन संबंधों की यात्रा पर आधारित है।  चंदुलाल दलाल की किताब “Heeralal Gandhi: A Life” और उनकी पौत्री नीलमबेन परिख की पुस्तक “Gandhiji’s Lost Jewel” पर आधारित कथा, पटकथा ख़ान ने ही लिखी है और उनके ही नाटक “Gandhi Vs Mahatma” की मूल कृति के लेखक दिनकर जोशी जी को भी फ़िल्म में सम्मान दिया गया है। 1996 में श्याम बेनेगल कृत, “The making of Mahatma” इसी पृष्ठभूमि पर है और गाँधी के मानव पक्ष को उजागर करती है, लेकिन इस फ़िल्म की विशेषता है कि इस कहानी के नायक, न हीरालाल गाँधी हैं और न ही महात्मा गाँधी। 


गांधीजी और उनके पुत्र का आपसी संबंध ( या संबंधहीनता) यही इस कहानी का मुख्य पात्र है। कहानी इसी संबंध के बनने टूटने, टूटकर फिर बनने, अचानक बिखर जाने और फिर वापस समेटे जाने की कवायद की दास्तान है, और फ़िरोज़ अब्बास ख़ान ने बड़ी कोमलता और तथ्यपरकता के साथ इस नाज़ुक रिश्ते को परदे पर पेश किया है। 


फ़िल्म के सारे मुख्य पात्रों ने उत्कृष्ट अभिनय किया है। गाँधी के रूप में दर्शन जरीवाला और हरीलाल के रूप में अक्षय खन्ना ने बेहतरीन किरदार निभाया। कस्तूरबा के रूप में शेफाली शाह ने एट्टेनबरो की 'गाँधी' की रोहिणी हट्टनगणी की याद दिला दी। भूमिका चावला ने हीरालाल के पत्नी ग़ुलाब के रूप में अत्यंत प्रभावी अभिनय किया है। साथ ही इतिहास कालीन दृश्यों को बहुत ही ईमानदारी और बारीकी से फिल्माया गया है। २००७  के राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार में दर्शन जरीवाला को गाँधी के अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का सम्मान भी हासिल हुआ था।


हीरालाल के बारे में यही बात पुराने संदर्भों से मिलती है कि गाँधीजी के सारे पुत्रों में सबसे ज़्यादा निडर, स्वाभिमानी और अपनी बात के लिए अपने पिता के समक्ष खड़े होने से पीछे नहीं हटने वाले इंसान थे। इस तरह का इंसान किस तरह से लाचार, अपने व्यासनों के आधीन और दर दर की ठोकरें खाने वाला बन जाता है, ये बड़ा पेचीदा मामला है। फ़िल्म में इतिहास के प्रसंगों के मध्य से सारी बातें बखूबी रखी गई हैं। 


फीनिक्स सेटल्मन्ट और टोलस्टॉय फ़ार्म के दिनों में सक्रिय रूप से गाँधी का हीरालाल को सत्याग्रह में शामिल करना। और हीरालाल का अपने गंतव्य के प्रति इतना  सदृड़ होना कि सभी उन्हे “छोटा गाँधी” कहने लगे। वहाँ से शुरुआत करने वाले व्यक्ति का गाँधी की हत्या के 5 महीनों के अंदर बॉम्बे अस्पताल में लावारिस की तरह दम तोड़ना, ये एक बड़ी मार्मिक कहानी है। इंसान का महात्मा बनने की राह में, अपने निजी संघर्षों की आंधी  में दूसरे के संघर्षों को अनदेखा करना और अपने मूल्यों को बिना किसी कारण के दूसरों पर थोपना भी बखूबी फिल्माया गया है। 


दर’असल ये रिश्ता बहुत ही जटिल है। गाँधी बनने की राह सरल नहीं है, इसमें कठोर तप है। गांधीजी की यात्रा साउथ अफ्रीका के दिनों के बाद से इतनी तेजी से आगे बढ़ी कि शायद उनके परिवार के लोगों को उस वेग को संभालने में वक़्त भी लगा और कहीं कहीं वो टूट भी गए। हीरालाल के साथ किंचित यही हुआ। 


अगर आप ऊपरी तौर पर इंटरनेट और WhatsApp की दुनिया का परोसा हुआ माल देखेंगे तो हीरालाल को एक शराबी, वैशयावृत्ति में लिप्त और कर्जे में डूबा हुआ बेटा पाएँगे और गाँधीजी के पिता रूप को एक कठोर और अपने राजनैतिक महत्वाकांक्षा के लिए पुत्र को त्याग करने वाला पिता। इस अधूरे ज्ञान से बाहर निकलने के लिए इस फ़िल्म को देखें और आपके अपने जीवन में आए इस तरह के संघर्षों से इस पिता-पुत्र की जोड़ी के संघर्षों को समझने का प्रयास करें।  ये फ़िल्म किसी की तरफ़दारी नहीं करती, न ही ये फ़िल्म ये बताती है कि महात्मा गाँधी के अपने निजी फैसलों के कारण ही अपने सार्वजनिक जीवन में वो महात्मा बने और न ही ये बताने की कोशिश करती है कि हीरालाल को सिर्फ अपने पिता के कारण जीवन में संघर्ष मिले। संतुलन के साथ, ग़लतियों और खूबियों दोनों का निर्वाह किया गया है।


बापू की अंतिम यात्रा में शरीक होने के लिए भीड़ में फंसे हीरालाल की दुर्दशा और दीनता को जिस प्रकार अक्षय खन्ना ने निभाया है, वो हृदय-विदारक है । और भी कई ऐसे दृश्य हैं जो मन पर छाप छोड़ते हैं। अगर इस फ़िल्म में कोई कमी है तो वो यह कि गाँधीजी की जीवन यात्रा में इतना कुछ हुआ और उस सबमें उनके परिवार को भी छुआ, कि हर बात के मर्म को ढाई-तीन घंटे की फ़िल्म में दिखाकर उसके साथ न्याय कर पाना अप्राप्य के क़रीब है। इसीलिए कुछ स्थानों पर फ़िल्म आपको भागती हुई लगेगी। लेकिन अपनी समग्रता में फ़िल्म अपने उद्देश्य में, इन पंक्तियों के लेखक की नज़रों में,  पूरी तरह सफल है। 

  

इन दोनों का रिश्ता कुछ यूं था, कि महात्मा गाँधी कभी भी अपने पुत्र के मोह से निकल नहीं पाए, लेकिन कभी भी उनको माफ़ भी नहीं कर पाए, वहीं हीरालाल कभी भी अपने पिता को प्रेम करना नहीं छोड़ पाए और ना ही कभी उनके सिद्धांतों के चलते, उन्हे अपने जीवन में अपना पाए। परिस्थिति को दोष देना आसान दिखाई देता है, लेकिन वही तो अक्सर हमें इस तरह बांध लेती है कि बाहर आना संभव नहीं हो पाता।


इस कहानी का मार्मिक अंत देखकर, ग़ालिब का शेर याद आता है, 

“ कुछ न था, तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता, 

डुबोया मुझको मेरे होने ने, मैं न होता तो क्या होता ?”



यूट्यूब पर यह फ़िल्म यहाँ पर देख सकते हैं -https://youtu.be/m7jcXv5MwMU


~ मनीष कुमार गुप्ता


Comments

  1. ये पिक्चर मैंने रिलीज के वक्त देखी थी. 2007 में. बापू की खुद अपनी संतानों के प्रति भूमिका कैसी थी ये अक्सर कौतुहल का विषय रही है. कहते हैं विशाल वट वृक्ष के समीप अक्सर छोटे पौधे पनप नहीं पाते हैं. शायद ऐसा ही कुछ हुआ हीरालाल के साथ भी. मूवी अच्छी है ...फिर एक बार देखी जा सकती है.

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