ट्रेप्ड (Trapped)


तनहाई, एक अजीब किस्म का एहसास है। कभी तो आपको भीड़ में भी अपने आपको तन्हा पाने का सबब हो सकता है और कभी सभ्यता से कोसों दूर नितांत जंगल की शांति में भी नहीं। अकेलापन का एहसास होना और अकेला होना दो अलग अलग बातें हैं। अकेलापन कभी भी हमें घेर सकता है और हमें तन्हा, हताश और बेबस और कभी कभी दुस्साहसी भी बना सकता है। कभी कभी यही अकेलापन हमें अपने आप को पहचानने, अपनी कमजोरियों से लड़ने और हमें अधिक सृजनशील बनाने में भी कारगर हो सकता है। 

सर्वाइवल (survival) फ़िल्में एक ऐसी तरह की फ़िल्में होती हैं जिसमें एकांत एक मुख्य पात्र होता है। इन फ़िल्मों में नायक अक्सर ऐसी परिस्थियों में फँस जाते हैं जहां उन्हे सिर्फ़ अपने आप को विषम परिस्थितियों से बचाना ही उद्देश्य नहीं होता, बल्कि इसके साथ उन्हे अपने अंदर के खालीपन और कमियों से आत्मसाक्षात्कार भी होता है।  सभ्यता से संपर्क कट जाने के कारण उन्हे ज़िंदा रहने की कवायद भी होती है और अपने अंदर के इंसान को और उसके विवेक को बचाने की भी लड़ाई लड़नी पड़ती है। 

कई सर्वाइवल फ़िल्में हमने देखी है, खासकर पश्चिम में बनी हुई, जो नायक को किसी ऐसी जगह पर छोड़ देती हैं जहां उसे अपनी जिजीविषा के साहारे अपने आप को बचाना पड़ता है। 'कास्ट अवै ' में निर्जन द्वीप पर, 'लाईफ़ ऑफ़ पाई' में एक बाघ के साथ बीच समंदर में, '127 अवर्स' में एक संकरी गुफा में, या 'मार्शन' में किसी दूसरे ग्रह पर।  इन सबके ठीक विपरीत, एक बसे बसाये महानगर में लाखों लोगों के बीचो-बीच एक सर्वाइवल फ़िल्म की कल्पना करना अपने आप में बड़े साहस का और रचनात्मक काम है।  

2016 की विक्रमादित्य मोटवानी की 'ट्रेप्ड', इसी तरह की अजीबोग़रीब कल्पना को अंजाम देती है।  अमित जोशी, हार्दिक मेहता द्वारा लिखित और मोटवानी के कसे हुए निर्देशन से बनी ये मात्र 105 मिनट की फ़िल्म दर्शक को लगातार कहानी के नायक के साथ जोड़े रखती है। 

संक्षिप्त में कहानी यूं है कि शौर्य जो कि एक कॉल-सेंटर में काम करता है, उसे अपनी प्रेमिका से शादी करने के लिए एक अदद घर की जल्द-से -जल्द ज़रूरत है, और इसी मजबूरी का फ़ायदा उठाकर एक एजेंट उसे एक किसी कोर्ट केस के कारण खाली पड़ी एक इमारत के 35वे माले पर एक फ्लैट दिला देता है।  घर के दरवाज़े का ताला खराब होने के कारण शौर्य उस फ्लैट में फँस जाता है और फिर बिना खाने, पानी, बिजली, इंटरनेट या फ़ोन के किस तरह वो अपने आप को वहाँ से बचाता है। 

मुंबई के फ्लैट अपने आप में कुछ विशेष भावना पैदा करते हैं। चमचमाती महानगरी में छोटे छोटे फ्लैट , घर होने के बाद भी कुछ अजनबी से लगते हैं। शायद लगातार आपको याद दिलाते हैं कि इस समंदर मैं आपकी हैसियत एक क़तरे भर की है। और साथ ही लगातार ये एहसास कि आप आस-पड़ोस की बिल्कुल ख़बर नहीं रख सकते। इनमें दाखिल होते ही आपको पूरी दुनिया से काट देने की क्षमता रखते हैं ये फ्लैट्स।  इसीलिए अजीब होते हुए भी, एक फ्लैट में बंद हो जाने  की अवधारणा वाली ये सर्वाइवल  फ़िल्म बिल्कुल अजीब महसूस नहीं होती, बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसा किसी के भी साथ हो सकता है।  इसकी विश्वसनीयता पर संशय करने की कई बातें आपके मन के अंदर आ सकती हैं, लेकिन फ़िल्म में लगभग हर संशय का निवारण किया गया है। 

शौर्य का 35वे माले से 'watchman watchman' चिल्लाना और उसकी आवाज़ का कहीं न पँहुचना, बिल्कुल विश्वसनीय है। ऊंची इमारतों से आवाज़ कहीं नहीं पँहुच सकती।  कहानी में शौर्य का अनेक तरीकों से बाहर से संपर्क साधने को दर्शाया गया है। अपने खून से 'Help' का पर्चा बनाकर फेंकना भी बिल्कुल ठीक मालूम होता है, यहाँ तक कि शाकाहारी शौर्य का अपने आप को ज़िंदा रखने ले लिए पंछी और कीड़े खाना भी।  जब एक पर्चा किसी के हाथ लगता है और वो ऊपर इमारत को देखती है तो शौर्य को नहीं देख पाती। मानो बड़े शहर की आलीशान इमारत जैसे शौर्य को खा गई हो।  

फ़िल्म में डिस्कवरी चैनल के "मैन वर्सेस वाइल्ड" जैसे कार्यक्रम को रोचक तरीके से इस्तेमाल किया गया है। हम देखते हैं कि किस तरह शौर्य और उसके साथी यह कार्यक्रम शौक से देखते हैं और कैसे शौर्य उसी तरह की परिस्थति में आ जाता है। एक नाजुक वक़्त पर जब शौर्य हलूसिनेशन (मतिभ्रम) का शिकार हो जाता है तो इसी कार्यक्रम का संदर्भ बड़े मज़ेदार तरीके से दिया गया है। 

जब शौर्य पहली बार फ्लैट देखता है और बालकनी से बाहर का नज़ारा और समंदर की हल्की सी झलक दिखाई पड़ती है, तो यह फ्लैट एक जन्नत दिखाई पड़ता है, वहीं पहली रात को सारे प्रयास विफल होने के बाद वही सुंदरता, एकदम अजनबी और भयावह दिखाई पड़ती है। 

फ़िल्म के छायांकन के बारे में भी विशेष बात की जानी चाहिए। कैमरा इस तरह से हमें नायक के संघर्ष को हमें दिखाता है कि हमें उसके बेहद क़रीब होने का एहसास होता है। फ्लैट में फंसे होने की भावना को बड़ी सफ़ाई से दर्शक को भी महसूस कराया गया है। वहीं फ्लैट के बाहर की दुनिया का अथाह और विशाल होना भी हमें दिखाई देता है। 

शौर्य की भूमिका में राजकुमार राव ने उच्च कोटि का अभिनय किया है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे वो पात्र के जीवन को ही जी रहे हैं।  गौरतलब है कि इस भूमिका के लिए उन्होंने बहुत तैयारी की थी, वास्तव में कई दिन तक कुछ नहीं खाया और दृश्यों में सच्चाई लाने के लिए अपना असली खून भी बहाया था।  साथ ही यह भी कहा गया है कि इसके दृश्यों की कोई सधी-सधाई पटकथा नहीं थी, और काफ़ी कुछ राजकुमार ने खुद ही किया है। उत्कृष्ट अभिनय के लिए राजकुमार को फ़िल्मफ़ेयर का बेस्ट ऐक्टर क्रिटिक्स सम्मान दिया गया था।  

मुंबई के प्रभादेवी इलाके में 'स्वर्ग' नाम के टॉवर में 'शौर्य' का फँस जाना, फ़िल्मकार के व्यंग्य को भी इंगित करता है।  मुंबई अपने आप में एक ऐसे शहर का रूपक बन चुका है, जहां लगातार भाग-दौड़ से भरी ज़िंदगी में इंसान अपनी जीविका के अलावा कुछ सोच नहीं पाता है, जहां जंगल की तरह ऊंची ऊंची इमारतें भर गई हैं , जहां लोग तो असंख्य हैं लेकिन साथ शायद कोई नहीं, जहां शहर लगातार शोर से भरा होता है, लेकिन दिलों में बस सन्नाटा। ऐसे में हर इंसान शायद अपने आप को इन आलीशान इमारतों के छोटे छोटे फ्लैट्स में फँसा हुआ और बाहर निकालने की जुगत में छटपटाता हुआ ही महसूस करता है।  

इस हिसाब से ये फ़िल्म न सिर्फ एक 'सर्वाइवल ड्रामा' , बल्कि हमारे आपके आसपास की ज़िंदगी का प्रतीक भी मालूम होती है। शौर्य जैसे ज़िंदा होकर भी ज़िंदा नहीं है, सवाक होते हुए भी गूंगा और सशरीर होते हुए भी गायब है। 

यही बात और खासकर फ़िल्म का अंत इस फ़िल्म को सिर्फ एक 'सर्वाइवल ड्रामा' से भिन्न और विशिष्ठ बनाती हैं। आमतौर पर इन फ़िल्मों में नायक का अपने आपको कठिन परिस्थितियों से बचकर वापस आना एक तरह का उत्सव होता है और अंत में लगभग सब ठीक हो जाता है।  लेकिन अंत के कुछ मिनटों में मोटवानी हमें यह दर्शाते हैं कि किस तरह शौर्य जब अपने जीवन में वापस आता है तो उसकी गैर-मौजूदगी का किसी को एहसास तक नहीं होता है, और उसका जीवन वैसा ही शुरू हो जाता है जैसा पहले था।  वही लोकल ट्रेन, वही कॉल-सेंटर।  फ़िल्म के अंत में शौर्य एक बार फिर उसी फ्लैट में जाकर सब कुछ देखता है, जो मेरे विचार से इस फ़िल्म का बेहद शक्तिशाली दृश्य है और कहानी के रूपक को चतुराई से हमारे सामने प्रस्तुत करता है। 

अगर आप इन सारी बातों को छोड़ भी दें तो सिर्फ़ एक अकेले इंसान के बिन पानी/फ़ोन/बिजली/खाने के बिना फँस जाने और उससे बचकर निकलने के संघर्ष के लिए ही इस फ़िल्म को देखें, तो भी यह एक बेहद सशक्त फ़िल्म है। 

 इसे  अमेजॉन प्राइम पर यहाँ (https://www.primevideo.com/detail/Trapped/0IV75JQ6N55Q6YYBPUF6HHKBFV) देख सकते हैं। 

~मनीष 

 

Comments

  1. बहुत बढ़िया मूवी है. मैने देखी थी जब रिलीज हुई थी. हिंदी में बनी कुछ गिनी चुनी उम्दा "सरवाईवल" फिल्मों में एक. राजकुमार राव एक अत्यंत प्रतिभाशाली अभिनेता हैं. उनकी फिल्म न्यूटन भी बहुत अच्छी है. रिव्यू अच्छा है. अनेक पहलुओं को छुआ है. लिखते रहो 👍

    ReplyDelete
    Replies
    1. प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत धन्यवाद!

      Delete
  2. पर्दानशीं एक शानदार कालम बनता जा रहा है, फिल्म को अपने नजरिये से बयान करने का तुम्हारा तरीका उसको बेजोड़ बनाता है, हर फिल्म का चुनाव विशेष और पाठक को फिल्म देखने के लिए प्रेरित करता है

    ReplyDelete
    Replies
    1. कोशिश जारी रहेगी मित्र । बहुत आभार !

      Delete

Post a Comment

Popular posts from this blog

जेनिसिस (Genesis)

Milestone (मील पत्थर) -2021

थोड़ा सा रूमानी हो जाएँ

अचानक (1973)

आदमी और औरत (1984)