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चार दिल चार राहें

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चार दिल चार राहें  चार लोग क्या कहेंगे सोच सोच कर समाज की कुरीतियाँ, विषमताएँ और इनमें छिपा अत्याचार चला ही जा रहा है। चार वर्णों में समाज को बाँट कर, हम बस यही सोच सोच कर बंधनों की इस चार-दीवारी में क़ैद होकर रह जाते हैं कि कहीं चार लोग, चार बातें न सुना दें। और अंत में चार कंधों पर अपने सपनों को चारों खाने चित्त करके , अलविदा हो जाते हैं।  लेकिन इस चार के चक्कर में कई बार हम किसी ऐसे चौराहे पर भी पँहुच जाते हैं, जहाँ हमें कई राहें मिलती हैं। तब फ़ैसला हम पर होता है कि हम उन्ही राहों पर चलते जाएँ जहाँ सदियों से लोग जा रहे हैं, या फिर मुश्किल नज़र आ रही दूसरी राहों पर जाने की हिम्मत भी जुटाएँ।  चार राहें जो अलग अलग जगह से आ/जा रही हैं, उनका एक चौराहे पर मिलना, एक तरह का रूपक भी है।  ख़्वाजा अहमद अब्बास कृत “चार दिल चार राहें” इसी रूपक के आसपास बुनी गई है।  आज पर्दानशीं पर हम बात करेंगे, लोगों के नज़रों और स्मृति से लगभग पूरी तरह विलुप्त हो चुकी 1959 में प्रदर्शित फ़िल्म “चार दिल चार राहें” के विषय में।  इस फ़िल्म को अपने समय में सफलता नहीं मिली और उसके बाद भी इसको याद करने वाले लोग कम ही हैं