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रोड, मूवी

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  रोड, मूवी  अपनी कुर्सी की पेटी बांध लीजिए! अब हम एक ऐसे सफ़र पर निकलने वाले हैं जो रोचक भी है अजीब भी, बेतुकापन लिए हुए भी, लेकिन शायद इन्ही सब बातों के बीच अपनी बात कह जाती है।  सिनेमा में एक विधा है जिसे “रोड मूवी” यानि यात्रा कि फ़िल्में कहते हैं। इन फ़िल्मों में अक्सर मुख्य पात्र एक यात्रा पर निकल जाते हैं और अंत में यात्रा और फ़िल्म समाप्त हो जाती है। ऐसी फ़िल्मों की खासियत होती है कि इनमें कहानी का नायक सिर्फ़ बाहरी नहीं बल्कि अंदरूनी यात्रा भी कर रहा होता है। और अंत में उसमें एक मौलिक बदलाव नज़र आता है। आप और हम ने ऐसी कई फ़िल्में देखी होंगी।  इन फ़िल्मों में अपनी ज़िंदगी के ढर्रे से बाहर निकलकर, अनजाने रास्तों और अजनबी लोगों के बीच एक तरह का पलायन, अपने मूल की खोज और एक बुनियादी परिवर्तन देखने को मिलता है। अनंत तक फ़ैली सड़कों में इंजन की गड़गड़ाहट के साथ धड़कते दिल की धड़कन एक अलग तरह का रोमांच पैदा करती है। “बॉन्नी एंड क्लाइड” से लेकर “जब वी मेट”, “बर्निंग ट्रेन” से लेकर “ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा”, यात्रा पर आधारित अनेक फ़िल्में हमने देखी और सराही हैं।  इस तरह की फ़िल्मों में एक नया ढंग ढूंढा

आदमी और औरत (1984)

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  आदमी और औरत  लेखक हेलन केलर ने कहा था, “हालांकि ये दुनिया पीड़ाओं से भरी हुई है, पर पीड़ा से जूझ कर उससे उबरने की कथाओं से भी भरी पूरी है” । मानवता के उदय से ये संघर्ष जारी है, और इन विजयों का मुख्य कारण है, मानव का एक दूसरे से जुड़ाव। अक्सर इसी प्रकार सहज रूप से अलग-अलग पृष्ठभूमियों और जीवन शैलियों के लोगों में आपसी जुड़ाव पैदा हुआ और सभ्यता आगे बढ़ती गई। अलगाव से ऊपर उठकर, आपसी अपनेपन की अनुभूति में ही मानवता का मूल छिपा है। आज पर्दानशीं पर हम इसी तरह के जुड़ाव की एक अनोखी कहानी से रूबरू होते हैं। वर्ष 1984 की तपन सिन्हा कृत “आदमी और औरत”। ये मात्र 55 मिनिट की एक फ़िल्म है। जिसे दूरदर्शन और मंडी हाउस के सौजन्य से बनी एक टेलीफ़िल्म के रूप में प्रस्तुत किया गया था। तपन सिन्हा अक्सर अपनी फ़िल्मों में बिंबों के माध्यम से इंसानी संबंधों को रूपक की तरह पेश करते थे। मृणाल सेन, ऋत्विक घटक और सत्यजीत रे के साथ सार्थक बंगाली फ़िल्मकारों की चौकड़ी बनाने वाले तपन सिन्हा ने यूं तो हिन्दी में कम फ़िल्में बनाई लेकिन उनकी कई फ़िल्मों का हिन्दी रूपांतरण अक्सर हुआ। हिन्दी में “एक डॉक्टर की मौत” उनकी यादगार फ़

ट्रेप्ड (Trapped)

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तनहाई, एक अजीब किस्म का एहसास है। कभी तो आपको भीड़ में भी अपने आपको तन्हा पाने का सबब हो सकता है और कभी सभ्यता से कोसों दूर नितांत जंगल की शांति में भी नहीं। अकेलापन का एहसास होना और अकेला होना दो अलग अलग बातें हैं। अकेलापन कभी भी हमें घेर सकता है और हमें तन्हा, हताश और बेबस और कभी कभी दुस्साहसी भी बना सकता है। कभी कभी यही अकेलापन हमें अपने आप को पहचानने, अपनी कमजोरियों से लड़ने और हमें अधिक सृजनशील बनाने में भी कारगर हो सकता है।  सर्वाइवल (survival)  फ़िल्में एक ऐसी तरह की फ़िल्में होती हैं जिसमें एकांत एक मुख्य पात्र होता है। इन फ़िल्मों में नायक अक्सर ऐसी परिस्थियों में फँस जाते हैं जहां उन्हे सिर्फ़ अपने आप को विषम परिस्थितियों से बचाना ही उद्देश्य नहीं होता, बल्कि इसके साथ उन्हे अपने अंदर के खालीपन और कमियों से आत्मसाक्षात्कार भी होता है।  सभ्यता से संपर्क कट जाने के कारण उन्हे ज़िंदा रहने की कवायद भी होती है और अपने अंदर के इंसान को और उसके विवेक को बचाने की भी लड़ाई लड़नी पड़ती है।  कई सर्वाइवल फ़िल्में हमने देखी है, खासकर पश्चिम में बनी हुई, जो नायक को किसी ऐसी जगह पर छोड़ देती हैं जहां उस

Milestone (मील पत्थर) -2021

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  Milestone (मील पत्थर) -2021 जब भी आप हम किसी  ट्रक और ट्रक-ड्राइवर के बारे में सोचते हैं तो अक्सर हमारे सामने बड़े सतरंगी दृश्य आते हैं। तरह तरह के रंगों वाले, रंग-बिरंगी झालरों से सज्जित और भड़कीले रंगों से सुसज्जित ट्रक। जिन पर सस्ती शायरी , “पप्पू दी गड्डी”, “ बुरी नज़र वाले तेरा मुंह काला” और “हॉर्न ओके प्लीज़” जैसे शब्दों की सज्जा व्याप्त रहती है। और ट्रक ड्राइवर जो जेहन में आते हैं वो अक्सर खुश-मिज़ाज़ और मस्ती से झूमते हुए। पंजाबी गीतों को ट्रक के साउन्ड सिस्टम पर  , पूरे जोर से सुनते हुए, मतवाले से ट्रक ड्राइवर।  ट्रक वालों की ज़िंदगी की यह छवि इस तरह से बार बार हमें रुपहले परदे पर दिखाई गई है, कि उनकी ज़िंदगी की गहराई और उनके संघर्षों से हम अछूते रह जाते हैं।  आज हम चर्चा कर रहे हैं, 2021 में प्रदर्शित हुई, फ़िल्म “माइल्स्टोन” या  “मील पत्थर” के  विषय में। निर्देशक ईवान अय्यर द्वारा निर्देशित ये दूसरी ही फ़िल्म है।  माइल्स्टोन में उपरोक्त ट्रक ड्राइवर की छवि के विपरीत, ट्रक चालकों के जीवन की सच्चाई को गहराई से दिखाया गया है। इनके जीवन के संघर्षों को बड़ी सफाई से एक बेहद संवेदनशील कहानी

जेनिसिस (Genesis)

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जेनिसिस (Genesis)  दुनिया के लगभग हर धर्म से जुड़ी हुई कई पौराणिक कथाएँ हैं। अक्सर ये कथाएँ आसानी से हमारे-आपके तार्किक मस्तिष्क को रास नहीं आती हैं। शायद इसीलिए कि इनमें अक्सर फेंटेसी, दिव्यता और तिलिस्म दिखाई देता है। इन बातों का सहारा लेकर ये पौराणिक कथाएँ कुछ छोटे छोटे विचार और सिद्धांत समझाने के लिए शायद गढ़ी जाती रही हैं।  चूंकि इन कथाओं में मानव के मूल चरित्र और उसके अनेकों रंग दिखाई देते हैं, इसीलिए अक्सर कथाकारों और फ़िल्मकारों को ये कथाएँ लुभाती रही है। इन कलाकारों ने ऐसी ही कथाओं के अनेक रूपांतरणों और प्रतिपादनों के माध्यम से कई बार अपनी बात कहने की कोशिश की है।  बाइबल ग्रंथ में एक पुस्तक है जिसे “बुक ऑफ जेनिसिस” यानि उत्पत्ति की पुस्तक कहा जाता है। इसमें कई कहानियाँ हैं, जैसे “नोहा के जहाज” की कहानी आप सभी को याद होगी।  “बुक ऑफ जेनिसिस” की एक कहानी है  कैन और हाबिल की, जिसमें दो भाई साथ में रहते हैं। एक किसान और दूसरा ग्वाला। एक दिन दोनों भगवान को भेंट देते हैं, जिसमें हाबिल अपने सबसे श्रेष्ठ जानवर की बलि देता है और कैन अपना बचा खुचा अनाज। भगवान सिर्फ़ हाबिल की भेंट स्वीकार कर

अचानक (1973)

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  अचानक   आज पर्दानशीं पर हम बात कर रहे हैं 1973 की फ़िल्म _“अचानक”_ के विषय में। पाप और पुण्य की परिभाषा और उनके दायरे, सही और ग़लत की मान्यताएँ, दृष्टिकोण के बदल देने पर सही का ग़लत और ग़लत का सही हो जाना, ये बातें बड़ी ही जटिल और उलझाने वाली हैं। इस फ़िल्म में इन्ही बातों की तहों को उधेड़ने और इन सवालों को उठाने की कोशिश की गई है।   लोकप्रिय गीतकार गुलज़ार ने अनेक फ़िल्मों का निर्देशन किया है। लगभग हर फ़िल्म मानवीय रिश्तों की गहराइयों को अलग अलग अंदाज में प्रदर्शित करती है। मेरे विचार से ये फ़िल्म उतनी ही गहराइयाँ को टटोलने की कोशिश करती हुई होते हुए भी, उनकी दूसरी फ़िल्मों  से बिल्कुल भिन्न है। इसकी कहानी एक थ्रिलर की तरह प्रदर्शित की गई है।  ख़्वाजा अहमद अब्बास की कहानी पर आधारित और हृषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्मित ये कहानी भारतीय नौसेना के अधिकारी  कवस एम नानावटी की अपने दोस्त प्रेम आहूजा के क़त्ल की सच्ची घटना से प्रेरित है।  कहानी में जिस किस्म के सवाल उठाए गए हैं उन्हे देखकर, गुलज़ार का ही एक शेर जेहन में आता है - “क्या बुरा है क्या भला  हो सके तो जला दिल जला “ 1959 में नौसेना अधिकारी  के एम

चार दिल चार राहें

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चार दिल चार राहें  चार लोग क्या कहेंगे सोच सोच कर समाज की कुरीतियाँ, विषमताएँ और इनमें छिपा अत्याचार चला ही जा रहा है। चार वर्णों में समाज को बाँट कर, हम बस यही सोच सोच कर बंधनों की इस चार-दीवारी में क़ैद होकर रह जाते हैं कि कहीं चार लोग, चार बातें न सुना दें। और अंत में चार कंधों पर अपने सपनों को चारों खाने चित्त करके , अलविदा हो जाते हैं।  लेकिन इस चार के चक्कर में कई बार हम किसी ऐसे चौराहे पर भी पँहुच जाते हैं, जहाँ हमें कई राहें मिलती हैं। तब फ़ैसला हम पर होता है कि हम उन्ही राहों पर चलते जाएँ जहाँ सदियों से लोग जा रहे हैं, या फिर मुश्किल नज़र आ रही दूसरी राहों पर जाने की हिम्मत भी जुटाएँ।  चार राहें जो अलग अलग जगह से आ/जा रही हैं, उनका एक चौराहे पर मिलना, एक तरह का रूपक भी है।  ख़्वाजा अहमद अब्बास कृत “चार दिल चार राहें” इसी रूपक के आसपास बुनी गई है।  आज पर्दानशीं पर हम बात करेंगे, लोगों के नज़रों और स्मृति से लगभग पूरी तरह विलुप्त हो चुकी 1959 में प्रदर्शित फ़िल्म “चार दिल चार राहें” के विषय में।  इस फ़िल्म को अपने समय में सफलता नहीं मिली और उसके बाद भी इसको याद करने वाले लोग कम ही हैं