रोड, मूवी
रोड, मूवी
अपनी कुर्सी की पेटी बांध लीजिए! अब हम एक ऐसे सफ़र पर निकलने वाले हैं जो रोचक भी है अजीब भी, बेतुकापन लिए हुए भी, लेकिन शायद इन्ही सब बातों के बीच अपनी बात कह जाती है।
सिनेमा में एक विधा है जिसे “रोड मूवी” यानि यात्रा कि फ़िल्में। इन फ़िल्मों में अक्सर मुख्य पात्र एक यात्रा पर निकल जाते हैं और अंत में यात्रा और फ़िल्म समाप्त हो जाती है। ऐसी फ़िल्मों की खासियत होती है कि इनमें कहानी का नायक सिर्फ़ बाहरी नहीं बल्कि अंदरूनी यात्रा भी कर रहा होता है। और अंत में उसमें एक मौलिक बदलाव नज़र आता है। आप और हम ने ऐसी कई फ़िल्में देखी होंगी।
इन फ़िल्मों में अपनी ज़िंदगी के ढर्रे से बाहर निकलकर, अनजाने रास्तों और अजनबी लोगों के बीच एक तरह का पलायन, अपने मूल की खोज और एक बुनियादी परिवर्तन देखने को मिलता है। अनंत तक फ़ैली सड़कों में इंजन की गड़गड़ाहट के साथ धड़कते दिल की धड़कन एक अलग तरह का रोमांच पैदा करती है। “बॉन्नी एंड क्लाइड” से लेकर “जब वी मेट”, “बर्निंग ट्रेन” से लेकर “ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा”, यात्रा पर आधारित अनेक फ़िल्में हमने देखी और सराही हैं।
इस तरह की फ़िल्मों में एक नया ढंग ढूंढा फ़िल्मकार देव बेनेगल ने और वर्ष 2009 में प्रदर्शित की फ़िल्म “रोड, मूवी”। आज पर्दानशीं पर हम इस फ़िल्म के बारे में कुछ जानेंगे।
इस फ़िल्म का शीर्षक ही अपने आप में निराला है। देव एक रोड मूवी बना रहे हैं और उसका नाम रखा है “रोड, मूवी” , यहाँ यह बीच में आया अर्ध-विराम बहुत अहम है। दर’असल यह फ़िल्म एक यात्रा की कहानी भी है और मूवी यानि फ़िल्मों की कहानी भी। यहाँ सड़क भी अहम है और फ़िल्म की रील भी।
फ़िल्म के कहानी नाटकीय अंदाज में अपनी बात कहती है। कहानी है विष्णु की, जो एक आवारा, जीवन में अपनी दिशा को नहीं समझने वाला, युवक है। और जैसा कि इस उम्र के लोग होते हैं, बिना बात का विद्रोही भी। उसके पिता, “आत्मा केश तेल” का व्यवसाय करते हैं, लेकिन विष्णु इस काम में उनका हाथ नहीं बँटाना चाहता। उसके चाचा का एक पुराना ट्रक, जो एक चलता फिरता सिनेमाघर भी है, उसे एक म्यूज़ीअम में पँहुचाने की जिम्मेदारी लेकर विष्णु ट्रक लेकर निकल पड़ता है। सारी कहानी इसी सफ़र की है। इस सफ़र में उसके साथी बनते हैं एक ढाबे पर काम करने वाला लड़का, एक मिकैनिक चाचा और एक बंजारन लड़की।
इस सफ़र में उसे बड़े अनूठे अनुभव होते हैं। और कई तरह की तकलीफ़ों में फँसता है। अपने साथियों के साथ उन सबसे जूझता हुआ अपना सफ़र पूरा करता है। एक भ्रष्ट पुलिस वाले और एक जल माफ़िया के सरगना को पछाड़ कर, लेकिन इन सबसे ऊपर अपने अंदर के अहम और स्वार्थ को पछाड़ कर आगे बढ़ता है।
इन पात्रों के अलावा तीन और मुख्य पात्र इस अजीब-ओ-ग़रीब कहानी में हैं। पहला यह चलते फिरते सिनेमा वाला 1942 में निर्मित पुराना ट्रक, दूसरा “आत्मा केश-तेल” और तीसरा पानी।
सिनेमा वाले ट्रक के माध्यम से किस तरह कई फ़िल्में दिखाकर वो भ्रष्ट पुलिस वाले से बच कर निकलते हैं, वह कहानी का बड़ा ही रोचक मोड़ है। जैसे अलिफ़-लैला में हर रात कहानी सुनाकर रानी अपनी जान बचाती है, वैसे ही पुलिस वाले को उसकी पसंद की फ़िल्में दिखाकर ये लोग अपने आप को बचाते हैं। कहानी के अंतिम पड़ाव में भी फ़िल्में दिखाकर ही मेला सजता है और कहानी अपने अंतिम पायदान पर पँहुचती है।
इसी प्रकार आत्मा तेल को भी कहानी में कई जगह पर एक “डेउस-एक्स-माकिना” की तरह कई तरह की समस्याएँ सुलझाने के लिए उपयोग किया गया है। फ़िल्म में प्यासा फ़िल्म का “सर जो तेरा चकराये” तो अनेक बार अलग-अलग रूप में हमारे सामने आता है और हमें विष्णु के असल व्यवसाय के बारे में बार बार याद दिलाता है।
इसी प्रकार, रेगिस्तान में जहां पानी की तंगी है और लोग मीलों-मीलों चलकर पानी की तलाश करते हैं, वह भी कहानी का एक प्लॉट-डिवाइस यानि कथा को आगे ले जाने वाले यंत्र की तरह हमारे सामने आता है।
यूं तो कहानी कहने की अनेक विधाएँ हैं, लेकिन एक फ़िल्म को इन सबसे अलग बनाती है उसके एक-एक दृश्य की शक्ति। कैमरा कब, क्या और कैसे दिखाता है, वही दर्शकों को कहानी के छिपे अर्थों को समझाता है। “रोड, मूवी”, जादुई सिनमैटिक अनुभव हमें कराती है। इसके लिए फ़िल्म के सिनेमटोग्राफर माइकल अमेथ्यू बधाई के पात्र हैं। राजस्थान के रेगीस्तानी इलाकों की बहुत ही भव्य तस्वीरें। लगभग फ़िल्म का हर दृश्य अपने आप में एक बेहद सुंदर चित्र प्रतीत होता है। जैसलमेर की इमारतों से लेकर कच्छ के रण तक कैमरे ने हमें प्रभावशाली लैन्स्कैप दिखाए हैं।
मेरे विचार से यह फ़िल्म देव बेनेगल की नज़रों में एक कविता ही है, क्यूंकी एक सादी सी कहानी को सुंदरता के साथ और, गजब के रूपकों के साथ प्रस्तुत किया गया है। मेरे विचार से “चलता-फिरता सिनेमाघर” , “तेल”, “पानी”, सभी अपने आप में उपमाएँ हैं, एक स्वयं की खोज में निकले, लक्ष्य-विहीन नौजवान के लिए।
एक आत्म-केंद्रित, विद्रोही, किसी को अपना न समझने वाला विष्णु, धीरे-धीरे अपने साथियों और अनजान लोगों की मदद करने वाला बन जाता है। और “तेल बेचने” को निकृष्ट काम न समझकर, उसकी अहमियत भी समझने लगता है।
फ़िल्म के कलाकारों में अभय देओल, विष्णु के किरदार में प्रभावशाली नजर आए। बंजारन की भूमिका में तनिष्ठा चटर्जी और लड़के के किरदार में मोहम्मद फ़ैज़ल ने भी प्रभावी अभिनय किया है। मैकेनिक चाचा के किरदार में स्व. सतीश कौशिक फ़िल्म की जान हैं। एक तरह से जिस प्रकार फ़िल्म में ट्रक बंद हो जाने पर उसे वापस ठीक करना, और फ़िल्म न चल पाने पर उसके प्रोजेक्टर को ठीक करना चाचा का काम था, वैसे ही इस फ़िल्म को लगातार रोचक बनाए रखने का काम सतीश कौशिक ने किया है। पुलिस अफसर की भूमिका में वीरेंद्र सक्सेना और माफ़िया सरदार की भूमिका में यशपाल शर्मा ने भी अपना-अपना पात्र बखूबी निभाया है।
फ़िल्म में चाचा की मृत्यु होने पर, विष्णु प्रोजेक्टर का पर्दा निकालकर उसका कफ़न बनाने को कहता है, क्यूंकी यह पर्दा उनका है, बड़ा ही सटीक और मार्मिक दृश्य है।
देव बेनेगल की इस फ़िल्म को कई अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में सराहा गया और पुरस्कारों के लिए नामांकित किया गया। लेकिन फ़िल्म बॉक्स-ऑफिस पर कोई सफलता हासिल नहीं कर सकी। कारण शायद यह कि ये कहानी एक अपने ही अंदाज की, अलग कहानी है जो एक तरह से सिनेमा को नये तरह से बयान करने की कोशिश करती है। इससे जुडने के लिए दर्शकों को पहले से तैयार होना चाहिए, नहीं तो यह बेतुकापन और उसमें छिपे भावार्थ, अजीब और बोझिल लग सकते हैं।
फ़िल्म में पार्श्व संगीत बहुत रुचिकर है और कुछ राजस्थानी लोकगीतों का प्रयोग बहुत ही कर्णप्रिय लगता है। दीवार, शोले, ज्वेल थीफ, प्यासा से लेकर बस्टर कीटन और चार्ली चैपलिन तक के अनेक लुभावने दृश्य हमें देखने को मिलते हैं। सेंसर बोर्ड पर एक अनूठे प्रकार के तंज में , एक दृश्य में चाचा रील को देखकर कहते हैं, यह तो बहुत बुरा सीन है, और उसे काट देते हैं।
फ़िल्म के चाचा के किरदार के शब्दों में “फ़िल्में हमें अपने जीवन को भूल कर एक सपनों की दुनिया में ले जाती हैं”। शायद वैसा ही कुछ एक यात्रा में भी होता है जहां हम अपनी दैनंदिनी भूलकर , आने वाले अपरिचित मोड़ों के रोमांच के लिए तैयार रहते हैं। यह “रोड, मूवी” हमें इन दोनों रोमांचों को एक साथ दिखाती है। तो इस फ़िल्म को देखने की यात्रा पर निकलें। लेकिन निकलने से पहले - अपनी कुर्सी की पेटी बांध लें।
फ़िल्म को यूट्यूब पर खरीद या किराये पर लेकर यहाँ से देखा जा सकता है -
https://www.youtube.com/watch?v=ogJYtbcGYNk
~मनीष
Test
ReplyDeleteअति सुंदर विश्लेषण किया है मनीष । आपके विश्लेषण ने फ़िल्म के प्रति जिज्ञासा बढ़ा दी है। अब इसे आपकी और अपनी नज़र दोनों से देखूँगा। इसी तरह अपने रोचक विश्लेषण और जानकारिओयों से हमें रूबरू कराते रहिए। आपका प्रशंसक - रंजीत करम चंदानी
ReplyDeleteआभार 🙏 । प्रतिक्रिया देते रहें।
Deleteअनोखी फ़िल्म का बहुत सुन्दर विश्लेषण मनीष. फ़िल्म की ख़ासीयात के साथ साथ आपने हमें इसकी कमियों से भी अवगत कराया इसका धन्यवाद 🙏
ReplyDeleteआभार 🙏 । प्रतिक्रिया देते रहें।
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