अचानक (1973)
आज पर्दानशीं पर हम बात कर रहे हैं 1973 की फ़िल्म _“अचानक”_ के विषय में। पाप और पुण्य की परिभाषा और उनके दायरे, सही और ग़लत की मान्यताएँ, दृष्टिकोण के बदल देने पर सही का ग़लत और ग़लत का सही हो जाना, ये बातें बड़ी ही जटिल और उलझाने वाली हैं। इस फ़िल्म में इन्ही बातों की तहों को उधेड़ने और इन सवालों को उठाने की कोशिश की गई है।
लोकप्रिय गीतकार गुलज़ार ने अनेक फ़िल्मों का निर्देशन किया है। लगभग हर फ़िल्म मानवीय रिश्तों की गहराइयों को अलग अलग अंदाज में प्रदर्शित करती है। मेरे विचार से ये फ़िल्म उतनी ही गहराइयाँ को टटोलने की कोशिश करती हुई होते हुए भी, उनकी दूसरी फ़िल्मों से बिल्कुल भिन्न है। इसकी कहानी एक थ्रिलर की तरह प्रदर्शित की गई है।
ख़्वाजा अहमद अब्बास की कहानी पर आधारित और हृषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्मित ये कहानी भारतीय नौसेना के अधिकारी कवस एम नानावटी की अपने दोस्त प्रेम आहूजा के क़त्ल की सच्ची घटना से प्रेरित है।
कहानी में जिस किस्म के सवाल उठाए गए हैं उन्हे देखकर, गुलज़ार का ही एक शेर जेहन में आता है -
“क्या बुरा है क्या भला
हो सके तो जला दिल जला “
1959 में नौसेना अधिकारी के एम नानावटी का अपने दोस्त के क़त्ल का मुक़दमा बहुचर्चित हुआ था। मीडिया ट्रायल के अनेक किस्से भारत में समय समय पर चर्चा में आए हैं, आरुषि के क़त्ल का किस्सा हो या सुशांत की आत्महत्या का। इस फेरहिस्त में नानावटी का किस्सा शायद पहले नंबर पर है। किवदंती है कि समाचार पत्रों में इस कहानी के कवरेज को पढ़ सुनकर जनता का समर्थन ऑफिसर नानावटी के लिए इस क़दर बढ़ गया था कि जूरी का निर्णय भी प्रभावित हो गया था। यह केस इस लिए भी उल्लेखनीय है क्यूंकी इस निर्णय के बाद भारतीय न्यायपालिका से जूरी के इस्तेमाल के विधान को समाप्त कर दिया गया।
नानावटी मर्डर केस के नाम से चर्चित इस कहानी ने फ़िल्मकारों और कथाकारों को बहुत प्रभावित किया है। देशप्रेम, इश्क, मोहब्बत, दोस्ती, फ़रेब, बेवफाई और खून , ये सारी बातें जिस कहानी में हों वो कहानी कहने वालों की नज़रों से कैसे बच सकती है। इस कहानी पर बनी फ़िल्मों में 1963 की आर के नय्यर द्वारा निर्देशित “ये रास्ते हैं प्यार के” और 2016 की टीनु देसाई निर्देशित “रुस्तम” चर्चित रही हैं।
सुनील दत्त, लीला नायडू, और रहमान द्वारा अभिनीत , नय्यर की “ये रास्ते हैं प्यार के” में विवाहेतर संबंध के लिए शराब में नशीली दवाई मिलाना और, खून के लिए किसी और को जिम्मेदार ठहराने जैसे हथकंडों का इस्तेमाल करके, नायक नायिका को किसी भी पेचीदगी से दूर रखा गया है। वहीं अक्षय कुमार, इलियाना डी’क्रूज़, अर्जन बाजवा अभिनीत , देसाई की “रुस्तम” में स्त्री की मर्यादाओं और देशप्रेम और नैतिकता के एक रंगी दृष्टिकोणों से कहानी को किसी भी पेचीदगी से दूर रखा गया है। इन दोनों ही फ़िल्मों में कोर्ट-रूम ड्रामा को महत्व दिया गया है।
इन सबके विपरीत गुलज़ार की फ़िल्म में असल नैतिक मुद्दों को सफ़ाई और संवेदनशीलता से उठाया गया है। विनोद खन्ना, लिली चक्रवर्ती, ओम शिवपुरी, असरानी, फरीदा जलाल और इफ़्तखार की मुख्य भूमिकाओं वाली "अचानक" में कहानी कई फ्लैशबैक और फ्लैशबैक के अंदर फ्लैशबैक का सहारा लेकर फ़िल्म के नायक (या खलनायक) की मनोस्तिथि से हमें अवगत कराती है। और साथ ही अवगत कराती है उस मनोस्तिथि को आकार देने वाली उसके जीवन की छोटी छोटी कहानियों से। जिनके माध्यम से हमें पात्र को समझने का मौका मिलता है।
फिल्म की कहानी मेजर रंजीत खन्ना के बारे में है, जो एक अत्यधिक सम्मानित सेना अधिकारी हैं, एक अधिकारी जिसे दुश्मन के खिलाफ उनकी बहादुरी के लिए वीर चक्र से सम्मानित किया गया है। फ़िल्म की शुरुआत एक अस्पताल में होती है जहाँ रंजीत खन्ना को कई गोलियां लगने के बाद मरणासन्न अवस्था में भर्ती कराया गया है, और ढेर सारी कोशिशें कर वहाँ के डॉक्टर उसे बचा लेने में सफल होते हैं। एक बेहद ही कुशल सम्पादन के जरिए इस बीच में फ्लैशबैक के ज़रिए से पूरी कहानी हमारे सामने आती है।
रंजीत खन्ना के मिलिटरी की ट्रैनिंग, अपनी पत्नी पुष्पा से उनका प्रेम, अपने फौजी होने के गर्व और गुमान की बातें, अपने दोस्त प्रकाश पर भरोसा। अपने पोस्ट की रक्षा करने के लिए दुश्मनों को अकेले ही नाको चने चबवाना और उसके लिए वीरता का मेडल प्राप्त करना।
ये सारी बातें हमारे सामने लगभग एक थ्रिलर की तरह सामने आती हैं।
उसकी गैरमोजूदगी में पुष्पा और प्रकाश का अफेयर हो जाता है, और ये पता लगने पर रंजीत दोनों का खून कर अपने आपको पुलिस के सामने समर्पित कर देता है।
कहानी तो बस इतनी सी ही है। लेकिन इसको फिल्माने के अंदाज़ और दृश्यों के कुशल संचालन और सम्पादन में ही इसकी गहराई का अंदाज़ा होता है। दोनों खून करते समय, कहानी को कट करके रंजीत की मिलिटरी ट्रैनिंग के दृश्य दिखाए गए हैं, जिससे आप समझ सकें कि इस तरह की भावना उठने के वक़्त किस तरह से मिलिटरी प्रशिक्षण भी अपना किरदार अदा करता है।
अपने गीतों और उनकी भावुकता के लिए मशहूर गीतकार गुलज़ार के इस फ़िल्म में कोई गीत नहीं है, हाँ उनके ही गुरु बिमल राय के फ़िल्म सुजाता का “सुन मेरे बंधु रे” कई दफ़ा हमें सुनने हो मिलता है। फ़िल्म के अंत के एक दृश्य में ‘मेरे अपने’ फ़िल्म का “कोई होता जिसको अपना” का संगीत भी कुछ पलों के लिए सुनाई देता है।
हर पात्र के जीवन की कई सारी तहें फ़िल्म में दिखाई गई है। रंजीत खन्ना का एक सम्मानित सिपाही होने के साथ साथ , अपने शराब पीने को एक सिपाही का स्टाइल समझना और हर जगह अपनी वर्दी पहनना ताकि उसका रौब बरकरार रह सके। पुष्पा का प्रकाश के साथ संबंध स्थापित कर लेने को भी किसी तरह की स्त्री की नैतिकता-अनैतिकता के साथ जोड़ने की कोशिश नहीं की गई है।
एक दृश्य में डॉक्टर , मेजर से कहता है , “कितनी अजीब बात है , 20 खून करने पर इसे मेडल मिला और 2 खून करने पर फाँसी” । ये फ़िल्म इस तरह के सवाल उठाती है और दर्शकों को उनके जवाब सुझाने की कोशिश नहीं करती। इसीलिए भी कि शायद इन बातों का कोई एक जवाब हो भी नहीं सकता।
रंजीत के किरदार में विनोद खन्ना ने उत्कृष्ट अभिनय किया है। वह मेजर के चरित्र को जीवंत करते हैं, एक ऐसा व्यक्ति जो अपनी बहादुरी और साहस के लिए जाना जाता है। रंजीत का किरदार, प्यार भी करता है, देश के रक्षा भी, खून भी और पुलिस की क़ैद से फ़रार होने की कोशिश भी। लिली चक्रवर्ती ने उनकी पत्नी की भूमिका में शानदार अभिनय किया है । मेजर की जान बचाने के लिए लड़ रहे डॉक्टर की भूमिका निभाने वाले ओम शिवपुरी और नर्स की भूमिका निभाने वाली फरीदा जलाल ने अपने पात्रों में जान डाल दी है। ‘अचानक’ अपने नायक को हीरो या विलेन दिखाने की कोशिश नहीं करती बल्कि दर्शकों को इस आकलन के लिए छोड़ देती है।
फ़िल्म 1973 की होने के कारण और छोटे बजट की होने के कारण अपनी तकनीकी गुणवत्ता में आपको कमतर लग सकती है। अस्पताल के दृश्य, युद्ध के दृश्य या पुलिस से बचकर भागने के दृश्य आज के समय के लिहाज से बहुत नाटकीय और कमज़ोर मालूम होते हैं , लेकिन कसी हुई पटकथा और स्वर्गीय वसंत देसाई के पार्श्व संगीत के चलते, ये दृश्य भी प्रभावशाली लगते हैं।
गुलज़ार को इस फ़िल्म के निर्देशन के लिए फिल्मफेयर अवार्ड से भी नवाज़ा गया था।
फ़िल्म का अंत हमें न्यायपालिका और डॉक्टरों के धर्म के बीच के टकराव पर छोड़ता है। एक डॉक्टर का कर्तव्य है कि वह अपने पैशन्ट को तब तक बचाने की कोशिश करे जब तक सांस बाकी है, भले ही न्यायपालिका के हाथों वह व्यक्ति बस मरने वाला है। कर्तव्यों की कठोरता और दृष्टिकोण के दायरों को रेखांकित करती है गुलज़ार की “अचानक”
अक़बर इलाहाबादी का शेर मन में गूंज रहा है -
“हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता “
इस फ़िल्म को आप यूट्यूब पर यहाँ देख सकते हैं - https://www.youtube.com/watch?v=88RFXFTNu0o
मैंने यह फ़िल्म 1975 में देखी थी और बहुत प्रभावित हुआ था। ख़ासकर वह दृश्य जब कुत्तों से बचने कि लिए मेजर अंग्रेज़ी का आठ का अंक बना कर उन्हें गुमराह करते हैं। बहुत अच्छी फिल्म है।
ReplyDeleteबढ़िया. इस विषय पर बनी "रुस्तम" एक आम बंबईया मसाला फिल्म लगी मुझे. गुलजार निर्मित ये फिल्म निश्चय ही अलग होगी और मानवीय संवेदनाओं का बेहतर चित्रण करती होगी. बहुचर्चित नानावती आहूजा कांड ने अपने समय में बहुत तहलका मचाया था. ब्लिट्ज नाम की सांध्य पत्रिका इस पर रोज खुलासे करती थी और ये पहला केस था जिसने विख्यात वकील राम जेठमलानी को लाइमलाइट प्रदान किया था. उसने न्याय व्यवस्था एवं जूरी सिस्टम को भी बदल कर रख दिया था. ये फिल्म देखने का प्लान है शायद अचानक ही मौका लगे. 🙂
ReplyDelete