चोक्ड (Choked) -2020

 



चोक्ड (Choked)


चोक्ड (Choked) यानि की “घुटा हुआ”, “रुँधा हुआ”, “जाम हो चुका”। 

मानव की फितरत होती है, एक ढर्रे को बनाना और उसपर चलते जाना। एक इंसान का जीवन कैसे भी हालातों से गुज़रे, वो उनके साथ रहने और यापन करने की आदत बना ही लेता है। हमें परिस्थिति कितने भी अनुकूल या प्रतिकूल हालातों में धकेल दे, हम इसमें धीरे धीरे जीने का ढंग निकाल ही लेते हैं, और एक ढर्रा बना लेते हैं, जिस पर चलते जाते हैं। इसके ठीक विपरीत प्रकृति की फ़ितरत है बदलाव। प्रकृति किसी भी अवसर पर, बिना किसी पूर्व सूचना के, मौके-बेमौके नए नए ढंग दिखाती रहती है। 

और ये बदलाव जीवन के ढर्रे में गतिरोध पैदा करते हैं। और अचानक सब कुछ जाम हो जाता है, “चोक्ड“ हो जाता है।  और अब जीवन को आदत अनुसार, इस नए व्यवधान के साथ अपने ढर्रे को फिर से ढूँढना पड़ता है।  और इस दौरान एक अव्यवस्था का, एक अराजकता का काल आता है। 

जीवन के इसी बिन्दु को दर्शाती है अनुराग कश्यप की "चोक्ड"। 2020 में नेटफ्लिक्स के सौजन्य से प्रदर्शित इस फ़िल्म की पृष्ठभूमि में है नवंबर 2019 में भारत में लागू विमुद्रीकरण या डिमोनिटाइज़ेशन। फ़िल्म के लेखक हैं निखित भावे और निर्देशन अनुराग कश्यप का है। 

कश्यप, अलहदा और लीक से हटकर विषयों पर फ़िल्म बनाने के लिए प्रसिद्ध हैं, और अक्सर इन विषयों का संचालन भी कहानी में एक अजीब पुट लिए होता है, जो इसे हमारे जीवन के बेतुकेपन के बहुत क़रीब लेकर आ जाता है। ये फ़िल्म भी इन बातों से परिपूर्ण है। 

इसकी कहानी हमारी जानी पहचानी कहानी है जिसमें हम भीड़भाड़ से भरी मुंबई में रोज़ी-रोटी के संघर्ष से जूझते एक परिवार को देखते हैं। सरिता एक बैंक में काम करती है और परिवार की एकमात्र कमाने वाली है, वहीं सुशांत अपने संगीत कॅरीयर को शुरू करने की कोशिश में सालों से लगा हुआ है, और नौकरियां बदलता रहता है, या कोई बिज़नस करने की कवायद में लगा रहता है।  इस बीच उन्हे अपने किचन की मोहरी में से काले धन के पैकेट मिलना शुरू हो जाते हैं, जिसे उसी बिल्डिंग में किसी के द्वारा छुपा कर रखा जा रहा था। इस सबसे आई क्षणिक खुशी उस वक़्त खत्म हो जाती है, जब पाँच सौ और हज़ार के नोट अचानक से अवैध घोषित कर दिए जाते हैं। कहानी यहाँ फिर मोड़ लेती है, और पता चलता है कि वह काला धन बिल्डिंग के बाकी लोगों को भी हासिल हो रहा था। इन अजीब सी परिस्थितियों  से जूझते हुए किस तरह यह लोग बाहर आ पाते हैं, यही कहानी है। 

लेकिन कहानी से कहीं बढ़कर इस फ़िल्म के दो पहलू हैं जो इसे विशेष बनाते हैं। पहला तो निम्न-मध्य वर्ग की जीवन शैली का यथार्थ से भरा हुआ चित्रण और दूसरा इस में निहित प्रतीकात्मकता । 

मुंबई की छोटी छोटी बिल्डिंगों में रहने वाले ग़रीबी और तंगहाली से परेशान लोगों के जीवन को सहजता से प्रस्तुत करती है यह फ़िल्म। और इस सहजता में हमारे जीवन के ढर्रे पर चलना शामिल है। किस तरह दैनंदिनी के छोटे छोटे संघर्ष हमारी आदत बन जाते हैं और किस तरह उसमें हम हास्य भी ढूंढ लेते हैं, इसका बखूबी चित्रण है। कुछ कुछ सई परांजपे की फ़िल्मों की याद दिलाता है मुंबई का इतना सजीव चित्रण। सिलविस्टर फोनसेका का छायांकन भी इन बिल्डिंगों के सँकरे कमरे और गलियारों को बहुत ही सफ़ाई से हमें दिखाते हैं और दर्शकों को भी एक क्लौस्ट्रफोबिया का अनुभव कराते हैं। 

इस कहानी की प्रतीकात्मकता भी बड़ी वृहद और जटिल है। इस कहानी की शुरुआत सरिता के अपने उस पल को फिर याद करते हुए होती है, जब एक गायन के रीऐलिटी शो पर अचानक भीड़ के सामने गाने की चिंता में उसकी आवाज़ नहीं निकल पाई थी और वो काम्पिटिशन से बाहर हो गई थी। यहाँ सरिता की आवाज़ जाम हो जाना और उनके जीवन में किचन की मोहरी का जाम हो जाना हमें प्रकृति के अचानक आए बदलाव की तरफ़ इंगित करते हैं जो हमारे ढर्रे, हमारे सपने और उसकी ओर हमारी यात्रा को अचानक “चोक” कर देती है।  कुछ ऐसा ही करोड़ों हिंदुस्तानियों के जीवन में भी उस वक़्त हुआ जब डीमोनिटाइज़ेशन का ऐलान हुआ। 

इसी प्रकार चाल में रहने वालों का एक दूसरे की मदद भी करना और एक दूसरे से बातों को छुपा कर रखना भी मानव के मनोविज्ञान पर टिप्पणी करता है। दर’असल मेरे विचार से ये बिल्डिंग एक तरह से देश की नुमाइंदगी करती है, जिसमें सभी अपने अलग-अलग संघर्षों से जूझ रहे है। ब्लैक मनी बिल्डिंग में छुपा कर रखने वाले का चेहरा फ़िल्म में नहीं दिखाया गया है, जो यह दर्शाता है कि काल धन तंत्र में कहाँ से आता है, ये आम आदमी के लिए समझ से पर है, लेकिन हम तंत्र की जिन बुराई रूपी मोहरियों की सफ़ाई के सपने देखते हैं, कभी कभी उन्ही से हमें भी संसाधनों या राहत की प्राप्ति हो जाती है। ये प्राप्ति लेकिन कुछ समय के लिए ही होती है। अंत में एक दूसरे के काम आकार ही हमारी नैया पार लग सकती है। फ़िल्म के एक संवाद में कटाक्ष के रूप में एक बैंक का ग्राहक सरिता को भारतमाता कहता है। शायद ये भी इस फ़िल्म का एक उपमा ही है। 

फ़िल्म में सामयिक राजनीति के भी कई अंगों को छुआ है। ये फ़िल्म कोई राजनीतिक फ़िल्म नहीं है, न ही कोई राजनीतिक मत आपके सामने रखती है, बल्कि इसका पूरा केंद्र सामाजिक दायरे में सिमटा हुआ है, लेकिन इस दायरे के लोगों के राजनीतिक विचार हमारे सामने दिखाने में संकोच नहीं करती है। एक दो संवादों में शादियों में चलने वाले हैश-टैग और “देशभक्त” होने के पीछे के खोंखलेपन को भी छुआ गया है। 

फ़िल्म में सरिता की केन्द्रीय भूमिका निभाई है सैयामी खेर ने, और उन्होंने जैसे इस किरदार को जिया है। सुशांत की भूमिका में रोशन मैथ्यू ने सधा अभिनय किया है। पड़ोसी सरवरी ताई के रूप में अमृता सुभाष ने अपने किरदार में जान डाल दी है और छोटे लेकिन प्रभावशाली पड़ोसी के किरदार में राजश्री देशपांडे ने भी कमाल अभिनय किया है। फ़िल्म के लगभग हर पात्र अपनी जगह पर सही महसूस होता है और सभी ने सधा हुआ अभिनय किया है, जो आपको इस फ़िल्म की दुनिया में डूबने में मदद करता है । 

मेरे विचार से इस फ़िल्म और कहानी की सबसे विशेष बात शायद यह है कि ये हमें यह संदेश देती है कि किसी भी प्रकार का कठिन वक़्त हो, आखिर गुज़र ही जाएगा, (या फिर हम इसके साथ जीने की आदत डाल लेंगे)। 

चोक्ड को आप नेटफ्लिक्स पर यहाँ देख सकते हैं https://www.netflix.com/TITle/81176968

~मनीष


Comments

  1. सुंदर आलेख। लिखते रहिए।

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