रघु रोमियो
रघु रोमियो
रघु बारिश में भीगता हुआ अपने घर पहुँचता है और गीली शर्ट उतार देता है। उसकी माँ घर में जगह जगह टपकते पानी से सामान बचाने के लिए बर्तन रख रही है, और आते ही रघु पर बरस पड़ती है कि कबसे कह रही हूँ घर की छत ठीक करा दे। रघु सारी बातें नज़रंदाज़ करके पास रखे टीवी पर पानी टपकता हुआ देखकर बौखला जाता है और सीधा टीवी को बचाने कि जद्दोजहद में लग जाता है। बिना शर्ट के अपनी इकहरी काया से बक्से जैसा टीवी उठाए, रघु घर में टीवी को रखने की जगह खोज रहा है और माँ माथा पीटते हुए घर के बाकी सामान को बचाने में और सफ़ाई में लगी हुई है।
ऊपर दिए गए दृश्य से ही आप अंदाज़ा लगा सकते हैं, इस फ़िल्म के नायक की पृष्ठभूमि का और उसके द्वन्द्व का। निर्देशक और लेखक रजत कपूर की “रघु रोमियो” अपने ही तरह की एक मज़ेदार कहानी है और साथ ही तीखा व्यंग्य अपने अंदर छुपाये हुए है।
शीर्ष भूमिका में विजय राज, और साथ ही मुख्य भूमिकाओं में सादिया सिद्दीक़ी, सौरभ शुक्ला, मारिया गोरेटी वारसी, और अन्य भूमिकाओं में सुरेखा सीकरी, वीरेंद्र सक्सेना, मनु ऋषि। इन बेहद अच्छे कलाकारों के द्वारा अभिनीत ये फ़िल्म एक “डार्क/ब्लैक कॉमेडी” शैली की कहानी है। रजत कपूर के साथ सौरभ शुक्ला ने फ़िल्म की पटकथा और संवाद लिखे हैं। वर्ष 2004 में सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फ़िल्म के राष्ट्रीय पुरस्कार का रजत कमल प्राप्त कर चुकी है। रजत कपूर, जो कि एक अच्छे अभिनेता भी हैं, ने इस शैली की फ़िल्मों में जैसे महारत हासिल कर ली है। “मिथ्या”, “फेटसो”, “आँखों देखी” जैसी फ़िल्में सबसे अलहदा विषयों पर बड़ी सुरुचिपूर्ण ढंग से अपनी बात कहती हैं।
शेक्सपीयर के रोमियो की तरह, रघु रोमियो भी अपने प्यार में दीवानगी की हद तक डूबा हुआ है, लेकिन यहाँ जुलीयट नहीं है, बस एक टीवी धारावाहिक का पात्र है। फ़िल्म में रघु एक बहुत ही मामूली और ग़रीब घर का सीधा-सादा नौजवान है जो एक बियर बार में वेटर का काम करता है। रघु एक टीवी धारावाहिक “दर्द का रिश्ता” की मुख्य पात्र- नीताजी से बेहद प्रेम करता है। रोज़ एकटक उस सीरियल को देखता जाता है, और उसी दुनिया में डूबा रहता है। वहीं उसी बार में काम करने वाली स्वीटी रघु से प्रेम करती है और उसकी हर संभव मदद करती है। लेकिन रघु अपने “नीताजी” के प्रेम से बाहर नहीं आ पाता।
बार का एक प्रमुख ग्राहक मारिओ उर्फ ब्रदर, एक सुपारी किलर है जो स्वीटी को पसंद करता है और उसके कहने पर रघु को अपने ड्राइवर की नौकरी पर रख लेता है। कहानी का असल मोड़ तब आता है जब “नीताजी” का अभिनय करने वाली रेश्मा का कान्ट्रैक्ट ब्रदर को मिल जाता है और नीताजी को बचाने की गरज से रघु रेश्मा का अपहरण करके सुरक्षित जगह पर ले जाता है। इस दौरान वो कलाकार और क़िरदार दोनों के फ़र्क को महसूस करता है। और धीरे-धीरे उसके मोहजाल में दरारें पड़ती हैं।
हृषिकेश मुखर्जी की "गुड्डी" , राम गोपाल वर्मा की "मस्त", मनीष शर्मा/शाहरुख खान की “फ़ैन” और मार्टिन स्कोरसिज़ी की "किंग ऑफ़ कॉमेडी"। इन सभी में एक “फ़ैन” और कलाकार के संबंधों को कई प्रकार से समीक्षा की गई है। लेकिन “रघु” का पात्र और कहानी इनसे थोड़ी अलग है। यहाँ एक फ़ैन का फैन्टेसी में भटकाव और उसके माध्यम से जीवन में यथार्थ से दूर होते जाने की बात कही गई है।
आपको ये कहानी वास्तविकता से परे लग सकती है, लेकिन फ़िल्मकार की क्षमता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि कहानी का परिप्रेक्ष्य, कलाकारों की भाषा, व्यवहार बिल्कुल वास्तविक है। एक बहुत ही संतुलित ढंग से कहानी में अपनी बात कही गई है ।
बड़ी अजीब बात है कि आज के समाज में हम काल्पनिक दुनिया में पूरी तरह से खोते जा रहे हैं। पिछले कुछ सालों में तो ये इतनी तीव्रता से हुआ है, कि किसी के लिए भी खुद को संभाल पाना नामुमकिन रहा है। हमारे फोन या अपनी सोशल मीडिया छवि के लिए हम वैसे ही पागल हैं जैसा कि रघु “नीताजी” के पात्र के लिए पागल था। हास्य में दबा छुपा इस फ़िल्म का ये संदेश सभी के लिए समझने योग्य है।
इस तरह की कहानी से हमें सिलेब्रिटी-कल्चर में फँसने के बुरे परिणाम को समझने का मौका भी मिलता है। साथ ही किस तरह मेलोड्रामा हम पर हावी होकर हमें अपने वास्तविकता से परे ले जाता है उसपर भी टिप्पणी करती है ये फ़िल्म। रघु किस तरह जुनून की हद तक एक पात्र से प्यार करता है और कल्पना-लोक में खोया रहता है। ये समझने पर भी कि रेश्मा वैसी बिल्कुल भी नहीं है जैसा टीवी सीरियल में दिखाई पड़ती है, वो अपने मायाजाल से बाहर नहीं आ पाता। यथार्थ के साथ संपर्क और उसकी समझ खो देना, जितना मुश्किल लगता है, उतना ही आसान है। हमारे आसपास की दुनिया इस बात का जीता जागता सबूत है।
ये फ़िल्म हिन्दी फ़िल्मों और सास-बहु धारावाहिकों में मसाले की तरह भरे हुए मेलोड्रामा और उसके प्रभाव में आती जा रही जनता के ऊपर भी कड़ा व्यंग्य कसती है। जब तक फ़ैन इस तरह की काल्पनिक जगत की कहानियों को पसंद करते रहेंगे और उनके प्रभाव में आते रहेंगे, तब तक ऐसा सामान परोसा जाता रहेगा ।
सारे पात्र बड़े ही रोचक, लेकिन फिर भी हमारे बीच के ही मालूम होते हैं। यही बात इस फ़िल्म को विशेषता प्रदान करती है। इस तरह के अजीब विषय को अजीब तरह की कहानी के द्वारा, इतने रुचिकर और हास्य के माध्यम से प्रस्तुत करना फ़िल्मकार की काबिलियत का प्रमाण है। स्वीटी के माध्यम से एक मज़बूत और आज़ाद स्त्री का पात्र भी यह कहानी हमें दिखाती है। वहीं रघु की माँ का क़िरदार भी आम फ़िल्मी माओं से बिल्कुल अलग है लेकिन जाना पहचान लगता है।
कहानी के अंत में “दर्द का रिश्ता” में जब नीताजी का पात्र मर जाता है और विजय राज ने जिस खूबी से विलाप किया है, वैसा सटीक और मार्मिक अभिनय आपने कम ही कलाकारों को करते देखा होगा। कल्पना जगत का अचानक टूटना और यथार्थ से टकराना, इस तरह कहानी का समापन भी बिल्कुल उपयुक्त है।
कहानी की पेचीदगी में जाए बिना, विशुद्ध मनोरंजन के लिए इस फ़िल्म को देखें। व्यावसायिक रूप से सफ़ल नहीं हो पाने पर हम अक्सर कई सारी विशेष फिल्मों को खो बैठते हैं। यह फ़िल्म ऐमज़ान प्राइम पर यहाँ उपलब्ध है।
आलेख पढ़कर बहुत ही मजा आया और जिग्याषा बढ़ गई, अब तो ये फिल्म देखनी ही पड़ेगी
ReplyDeleteशुक्रिया मित्र। इस ब्लॉग को लिखने के उद्देश्यों में से यही सबसे महत्वपूर्ण है कि लोग इन फ़िल्मों को देखें। 🙏
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