मुक्ति भवन
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मुक्ति भवन ओशो ने “मैं मृत्यु सिखाता हूँ” पुस्तक में कहा है , “जन्म और मृत्यु में गुण का फ़र्क नहीं है, सिर्फ़ मात्रा का फ़र्क है। ये विलोम शब्द नहीं है। जन्म बढ़ते-बढ़ते मृत्यु बन जाती है। इसका मतलब ये कि जन्म और मृत्यु एक ही चीज़ के दो बिन्दु हैं। न जाने कैसी नासमझी में, न मालूम किस दुर्दिन में आदमी को यह ख़्याल बैठ गया कि जन्म और मृत्यु में विरोध है। हम जीना चाहते हैं, हम मरना नहीं चाहते। और हमें यह पता नहीं है कि हमारे जीने में ही मरना छिपा ही है। और जब हमने एक बार तय कर लिया कि हम मरना नहीं चाहते, तो उसी वक़्त तय हो गया कि हमारा जीना भी कठिन हो जाएगा।” मृत्यु, मृत्यु की प्रक्रिया की शुरुआत, और मृत्यु का स्वीकार्य- बेहद गूढ़ और जटिल विषय है। अनेक महापुरुषों ने व्याख्या की लेकिन तब भी हम जीवन और मृत्यु को एक ही चीज़ के दो सिरे मान पाने में असमर्थ होते हैं। मृत्यु क्यों, और मृत्यु के बाद क्या, मुक्ति, मोक्ष इन सारी बातों के बारे में तो कल्पना और विवाद किया जा सकता है, लेकिन मृत्यु के बारे में एक बात तयशुदा रूप से कही जा सकती है। वह यह कि इस प्रक्रिया का प्रभाव मृत्यु पाने वाले से कहीं ज़्य