जेनिसिस (Genesis)



जेनिसिस (Genesis) 


दुनिया के लगभग हर धर्म से जुड़ी हुई कई पौराणिक कथाएँ हैं। अक्सर ये कथाएँ आसानी से हमारे-आपके तार्किक मस्तिष्क को रास नहीं आती हैं। शायद इसीलिए कि इनमें अक्सर फेंटेसी, दिव्यता और तिलिस्म दिखाई देता है। इन बातों का सहारा लेकर ये पौराणिक कथाएँ कुछ छोटे छोटे विचार और सिद्धांत समझाने के लिए शायद गढ़ी जाती रही हैं।  चूंकि इन कथाओं में मानव के मूल चरित्र और उसके अनेकों रंग दिखाई देते हैं, इसीलिए अक्सर कथाकारों और फ़िल्मकारों को ये कथाएँ लुभाती रही है। इन कलाकारों ने ऐसी ही कथाओं के अनेक रूपांतरणों और प्रतिपादनों के माध्यम से कई बार अपनी बात कहने की कोशिश की है। 


बाइबल ग्रंथ में एक पुस्तक है जिसे “बुक ऑफ जेनिसिस” यानि उत्पत्ति की पुस्तक कहा जाता है। इसमें कई कहानियाँ हैं, जैसे “नोहा के जहाज” की कहानी आप सभी को याद होगी। 


“बुक ऑफ जेनिसिस” की एक कहानी है  कैन और हाबिल की, जिसमें दो भाई साथ में रहते हैं। एक किसान और दूसरा ग्वाला। एक दिन दोनों भगवान को भेंट देते हैं, जिसमें हाबिल अपने सबसे श्रेष्ठ जानवर की बलि देता है और कैन अपना बचा खुचा अनाज। भगवान सिर्फ़ हाबिल की भेंट स्वीकार कर लेते हैं  और इस बात से ईर्ष्या से भरकर कैन, अपने भाई हाबिल की हत्या कर देता है। 

इसी पुस्तक की एक और बड़ी प्रसिद्ध कहानी है आदम और हव्वा की कहानी जिसमें “गार्डन ऑफ ईडन” के सांप-रूपी-शैतान के भुलावे में आकार वे दोनों , भगवान द्वारा निषेधित किए जाने के बाद भी, जीवन-वृक्ष का फल खा लेते हैं। इस कारण उन्हे वहाँ से बाहर निकलकर मृत्यु-लोक में जीवन भर कष्ट झेलने का शाप मिल जाता है। 


मृणाल सेन भारत के श्रेष्ठ फ़िल्मकारों में से माने जाते रहे हैं। उनकी 1969 में निर्मित “भुवन शोम” को कुछ लोग भारतीय सिनेमा की नई धारा की औपचारिक शुरुआत भी मानते आए हैं।  वर्ष 1986 में मृणाल सेन ने “बुक ऑफ जेनिसिस” का एक रूपांतरण प्रस्तुत किया - “जेनिसिस”


ओमपुरी , नसीरुद्दीन शाह, शबाना आज़मी और एम के रैना द्वारा अभिनीत “जेनिसिस” सामान्य रूपांतरण नहीं बल्कि इन कहानियों को नए रूप में ढालने का एक रोचक प्रयोग है। 


फ़िल्म की शुरुआत किसी पौराणिक कथा के शुरुआत की तरह एक कथावाचक की आवाज़ से होती है। लेकिन पहले ही वाक्य में आप इस कहानी में निहित व्यंग्य को पकड़ सकते हैं - “हमेशा के तरह सूखे से परेशान लोगों ने मदद की गुहार लगाई … ज़मींदार से … और ज़मींदार ने मुंशी से कहा इन सबका अंगूठा लगवा लो“


इन सबसे बचकर एक जुलाहा और एक किसान एक उजड़े हुए गाँव में भागकर आ जाते हैं। ओमपुरी और नसीर अभिनीत इन क़िरदारों का कोई नाम नहीं दिया गया है। फ़िल्म में किसी भी पात्र का कोई नाम नहीं है।  एम के रैना का क़िरदार एक धनाढ्य व्यवसायी का है, जो इन दोनों को अपने उजड़े शहर में चुपचाप बसे रहने के लिए कुछ चीजें देता है और बदले में उनसे काम करवाता है।  


उनकी इस अंधेरी दुनिया में, अचानक एक दिन एक लालटेन पकड़ी हुई औरत का प्रवेश होता है। और इस प्रकार इन दोनों के इस दो लोगों की अंधेरी दुनिया में एक तीसरा दाखिल हो जाता है और उजाला छा जाता है। फिर उनकी बेरंग ज़िंदगी में रंग भरने शुरू हो जाते हैं। सभी मिलकर हंसी खुशी से रहते हैं। औरत न सिर्फ़ उनके घर के खुरदुरे फर्श को धोकर साफ़ करती है, बल्कि उनकी ज़िंदगी के खुरदुरेपन को भी कम करने लगती है। लेकिन फिर धीरे धीरे दोनों पुरुषों के रिश्ते में दरार पड़नी शुरू हो जाती है। रैना का क़िरदार इस दरार को और गहरी करने की कोशिश भी करता है और भरने की भी।  जब दोनों एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं तो उन्हे बचाने की गरज से  औरत उनके जीवन से चली जाती है। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, और बुल-डोज़र रूपी प्रलय उनके संसार को तहस-नहस कर देती है। 


सेन ने दर्शाने की कोशिश की है की यूं तो दोनों उस व्यवसायी के ग़ुलाम हैं लेकिन वास्तव में वे और सारे इंसान अपने अंदर पनप रही ईर्ष्या, वासना जैसी भावनाओं के ग़ुलाम हैं और ये दासता किसी भी प्रकार की भौतिक दासता से ज़्यादा विशाल और गहरी है। 


फ्रेंच सिनेमेटोग्राफर कार्लो वारीनि के साथ मिलकर आधुनिक काल में बाइबल के आदि काल को दर्शाने का काम सेन ने बखूबी किया है।  एक भूकंप और सूखे से टूट-फूट गए गाँव को कहानी के नेपथ्य के रूप में इस्तेमाल करना बेहद प्रभावशाली निर्णय साबित होता है।  फ़िल्म में कई दृश्य ऐसे हैं जो बिना किसी संवाद के सारी बातें कह देते हैं। एक दृश्य में नसीर और ओमपुरी दोनों को हल में बैल की तरह लगाकर, खेत जोतती हुई शबाना का दृश्य “मदर इंडिया” की याद दिलाता है।  वहीं झूले को एक प्रतीक की तरह उपयोग करके कई सारी बातें प्रेषित की गई है। ज़मींदार की चमकीली जूतियाँ भी एक प्रतीक की तरह प्रयुक्त की गई हैं। 


फ़िल्म की शुरुआत में किसान को एक मानव खोपड़ी मिलती है, जिसे वो लेकर घर आ जाता है। फिर वो ये समझकर की यह “चमकीली जूती” वाले की खोपड़ी है उसके आसान पर बिठा कर उसे महाराज कहकर संबोधित करने लगते हैं। मामूली से लगने वाले इस हल्के-फुल्के दृश्य के माध्यम से ये कहानी उसके पात्रों के जीवन और इतिहास को बेहद कुशलता से हमारे सामने प्रस्तुत करती है। 


एम के रैना का सेठ के रूप में क़िरदार भी बड़ी सफाई से पेचीदा सवाल खड़े करता है। सेठ उन्हे कहता है तुम्हें जो भी चाहिए मैं दूंगा और मैं तुम्हारी रक्षा भी करूंगा। तो एक तरह से वह बाइबल की कहानी के भगवान की भूमिका में है। लेकिन वही समाज के सामंतवाद और बाज़ारवाद की नुमाइंदगी भी करता है।  सेन ने इस कहानी में बड़ी महीनता से धर्म के पाखंडों पर इस तरह की टिप्पणी की है। 


अगर इस फ़िल्म के बात की जाए और पंडित रविशंकर के संगीत की बात न हो तो ये बात अपूर्ण ही रहेगी। फ़िल्म में कोई गीत नहीं है लेकिन पार्श्व संगीत का उपयोग बहुत ही कुशलता है हुआ है। एक फ़िल्म जिसमें पात्र भी ज़्यादा नहीं है और संवाद भी न के बराबर उसमें पार्श्व संगीत एक बहुत बड़ा आयाम है अपनी बात को दर्शकों तक पँहुचाने का। इसमें पंडित रविशंकर के सितार के ध्वनियाँ और उनके द्वारा दिया गया संगीत बेहद ज़रूरी अंग बनकर सामने आता है। 


फ़िल्म के चारों कलाकारों के बारे में बात करना तो बहुत मुश्किल काम है। ये वो दौर था जब नसीर, ओम और शबाना एक के बाद एक अपने उत्कृष्ट अभिनय से सिनेमा के इतिहास में अपना नाम दर्ज़ कराते जा रहे थे, और इस फ़िल्म में उनका प्रदर्शन भी कोई अतिशयोक्ति नहीं है। एम के रैना ने भी बहुत ही कुशल अभिनय के साथ इनके साथ बराबरी का काम किया है। 


अगर इस फ़िल्म की कमियों की बात करें तो, धीमी गति के अलावा कोई कमी नज़र नहीं आती, लेकिन यही धीमी गति भी शायद एक सोचा समझा निर्णय हो सकता है, ताकि दर्शक इस दुनिया में अपने आपको डूबा पाने में सक्षम हो सके। 


इस फ़िल्म की कोई अच्छी प्रति मुझे प्राप्त नहीं हो पाई है लेकिन यूट्यूब पर एक टूटी-फूटी प्रति आप यहाँ देख सकते हैं - https://www.youtube.com/watch?v=IgwfNDJNAvk 


~मनीष


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